महाभारत का एक प्रसंग है-युद्ध के बाद जब सारी स्थितियां सुचारु हो गईं, कृष्ण पहुंचते हैं कुंती के पास। कहते हैं-‘बुआ! आज्ञा लेने आया हूं द्वारिका प्रस्थान के लिए। सब व्यवस्थित हो गया है।’ कुंती को विश्वास तो नहीं हुआ, फिर भी पूछा कि क्या बुआ को खाली हाथ छोडकऱ चला जाएगा? कृष्ण ने कहा-‘नहीं! आप जो भी आदेश करें, देकर जाऊंगा।’ कुंती ने सिर हिलाया-‘विश्वास नहीं होता। तेरा तो नाम ही छलिया है। विश्वास कैसे करूं?’
‘मेरे कहने से ही कर लो।’ कृष्ण रुक गए।
‘अच्छा देना ही चाहता है और दे ही सकता है तो…। कुंती पूरी बात कहे इसके पहले ही कृष्ण ने पूछ लिया-‘क्या?’
‘मुझे दु:ख चाहिए, दु:ख दे।’ कुंती आगे नहीं बोल पाई। कृष्ण भी चकित थे। ‘बुआ! बारह साल का वनवास काटा, एक वर्ष अज्ञातवास और सम्पूर्ण खानदान को आंखों के आगे उजड़ते देख लिया। अब कौनसा दु:ख बाकी रह गया।’ ‘बातें मत बना। देना है तो दे। मना तो कर ही सकता है। बात यह है कृष्ण! दु:ख में ही तू सदा साथ रहता है। सुख में छोड़ जाता है।’
आज देश के समक्ष प्राकृतिक आपदा मुंहबाएं खड़ी है। हर नागरिक के सिर पर मौत की तलवार लटक रही है। और सबको अपना-अपना मालिक याद आ रहा है। मालिक या ईश्वर सबके दिलों में ही है। देश स्वप्नवास्था से जाग्रत हो चुका है। हमें अपने उस ईश्वरीय स्वरूप को प्रकट करना है। सबके भीतर एक ही स्वरूप दिखाई पड़ेगा। उसका बचना ही हमारा बचना है। हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई, नाम कुछ भी हो, हम एक ही पेड़ की डालियां हैं। हर प्राणी उसी पेड़ का पत्ता है। पेड़ सुरक्षित है, तो पत्ता है। कोई पत्ता एक-दूसरे से टूटकर जीवित नहीं रह सकता।
यह भी सच है कि आपदा मानव की गलती से आई है। प्रकृति कुपित हुई है। हम क्षमा याचना करें प्रकृति से भी, अपनी आत्मा से भी। हमें निकल पडऩा है नर की सेवा करने। आज चारों ओर गरीब पलायन कर रहा है। भूख उसे नोंच रही है। सरकार का अपना तरीका है, राहत पहुंचाने का। पहले उनको फाइलों का पेट भरना होता है, फिर इंसानों का। हमें निकल पडऩा है। घर-घर से दो-तीन परिवारों का खाना तथा अन्य आवश्यक सामग्री अवश्य पहुंचनी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति दाता बन जाए। जिसके आसपास जो दिखाई दे, उसी तक पहुंच जाओ। एक गाना था पुराना-‘तेरे द्वार खड़ा भगवान, भगत भर दे रे झोली।’ हमारे छोटे से सहयोग से पूरा देश कोरोना से लड़ सकेगा। रामसेतु निर्माण में गिलहरी की भूमिका कम नहीं थी।
आज हमें प्रकृति ललकार भी रही है, पुकार भी रही है। वही हमारी मां भी है। हमने जो उसका अपमान किया, उसके लिए क्षमा मांगते हुए जीवन की नई डगर पकड़ें। जहां न जाति, न समाज। सब अपने-अपने घरों के भीतर। बाहर हम एक पेड़ के पत्ते। जुड़वां भाई-बहिन। किसी को भी खोकर हम सुखी नहीं। न कोई भूखा सोए, न इलाज से वंचित रहे। यदि हुआ, तो यह हमारा और हमारी संस्कृति का अपमान होगा। नर की सेवा ही नारायण-व्यक्ति ही देश-व्यक्ति ही ब्रह्म-के योग का मार्ग है। सब मिलकर सुखी रह सकें, यही स्वर्ग है।