कभी किसी के मन में भी नहीं आया होगा कि एक दिन ये देश दिवंगत नेताओं के नाम पर भी तुच्छ राजनीति होते देखेगा। उन लोगों को भी अपने-परायों के सांचों में ढाल दिया जाएगा जिन्होंने देश को दिशा दी। 31 अक्टूबर को सरदार पटेल की जयंती और इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि मनाई गई लेकिन अलग-अलग अंदाज में। जहां केन्द्र सरकार और भाजपा शासित राज्यों में सरदार पटेल की जयंती राष्ट्रीय एकता दिवस के रूप में मनाई गई, वहीं कांग्रेस और कांग्रेस शासित राज्यों में इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि मनाई गई। केन्द्र सरकार और भाजपा शासित राज्यों में इंदिरा गांधी को याद नहीं किया गया तो कांग्रेस ने इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि मना ली और पटेल को याद नहीं किया। केन्द्र सरकार के विज्ञापनों में इंदिरा नजर नहीं आई तो कांग्रेस के विज्ञापनों में पटेल नदारद दिखे। मानो सरदार तो सिर्फ भाजपा के नेता रहे हों और इंदिरा कांग्रेस तक ही सिमटी रही हों। देश को एकता के सूत्र में बांधने के लिए पटेल ने जो किया वह किसी के भुलाने से भुलाया नहीं जा सकता। पटेल न भाजपा के हैं और न कांग्रेस के। पटेल पूरे देश के नेता थे, हैं और हमेशा रहेंगे। यही बात इंदिरा गांधी पर भी लागू होती हैं। इंदिरा बेशक कांग्रेस की नेता थीं लेकिन उन्होंने सोलह साल तक देश का नेतृत्व किया। देश को नई ऊंचाइयों पर ले जाने में उनके योगदान को उनके विरोधी भी स्वीकार करते रहे हैं।कोई सरकार उनको याद करे ना करे इससे उनका कद कम होने वाला नहीं। 31 अक्टूबर को दिल्ली से लेकर राज्यों की राजधानियों और शहरों से लेकर कस्बों तक संकीर्ण राजनीति का खेल खेला गया उससे दोनों हस्तिशें का कद कम नहीं हुआ। कद कम हुआ उन लोगों का जो ऎसी सोच का सार्वजनिक इजहार कर रहे हैं। सामने वाले की लकीर छोटी करने की मंशा रखने वाले को बड़ा कैसे माना जाए? मंशा अपनी लकीर को सामने वाले की लकीर से बड़ा करके दिखाने की होनी चाहिए। ये देश कितनी सरकारों और प्रधानमंत्रियों को देख चुका है और आगे भी देखता रहेगा। प्रधानमंत्री कोई भी हो, वह किसी पार्टी का नहीं समूचे देश का होता है। ऎसे महापुरूष्ाों को बांटने की नीति पर शर्म आती है। ऎसा करने वाले युवा पीढ़ी को क्या संदेश दे रहे हैं? वे बातें देश को जोड़ने की करते हैं लेकिन काम तोड़ने के। जो हुआ वह दुखद भी था और शर्मनाक भी। लेकिन भविष्य में ऎसा ना हो, देश राजनेताओं से यही उम्मीद कर सकता है।