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विश्वास की डोर

वित्तीय लेन-देन संस्थाओं, सरकारी व गैर-सरकारी बैंकों के आंतरिक परीक्षण तंत्र, प्रक्रियाओं व निर्णयों में पारदर्शिता व विश्वास बहाली की दरकार है।

जयपुरOct 06, 2018 / 04:48 pm

सुनील शर्मा

chanda kochar, icici

एक सौ पैंतीस करोड़ की आबादी वाले भारत में वित्तीय संस्थाएं संकट के बड़े दौर से गुजर रही हैं। यह तथ्य सचमुच आम भारतीय को परेशान करने वाला है। एक ओर तो यह तथ्य है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक बड़े-बड़े धन्नासेठों को न केवल अनाप-शनाप कर्ज दे रहे हैं बल्कि उनकी वसूली तक में नाकामयाब होकर उसे डुबो रहे हैं। सीधे-सीधे यह आम आदमी के धन से खिलवाड़़ और गैर-निष्पादित संपत्तियों का बोझ देश की अर्थव्यवस्था पर डालने का कृत्य है। दूसरी ओर, सरकारी बैंकों से डेढ़ गुना से अधिक संख्या में मौजूद गैर-सरकारी बैंक अपनी कॉरपोरेट नैतिकता को लेकर सवालों के घेरे में हैं।
आइसीआइसीआइ बैंक की प्रबंध निदेशक और नौ साल तक सीईओ रही चंदा कोचर के इस्तीफे के बाद कॉरपोरेट गवर्नेंस और नियामक संस्थाओं के अस्तित्व, कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिन्ह लगा है। सवाल ये उठना लाजिमी है कि कोचर के मामले में विसलब्लोअर ने जो शिकायत दो साल पहले की थी और जिसकी परिणति कोचर के इस्तीफे के रूप में हुई, उस पर रिजर्व बैंक ने समय रहते कार्रवाई क्यों नहीं की। इस अहम सवाल का जवाब अब तक नहीं आया है। ठीक उसी तरह, जैसे नीरव मोदी और मेहुल चोकसी के मामले में पंजाब नेशनल बैंक का आंतरिक निगरानी तंत्र, रिजर्व बैंक और अन्य एजेंसियां तब तक सोई रहीं, जब तक कि ये शातिर कारोबारी हजारों करोड़ रुपए की रकम लूटकर फुर्र नहीं हो गए।

ऐसा भी नहीं है कि कोचर, नीरव या माल्या जैसे मामलों की वजह से नियामक संस्थाओं और कॉरपोरेट गवर्नेंस की कमजोरी के पहलू अभी ही उजागर हुए हैं। हम सभी जानते हैं कि नौ-दस साल पहले के सत्यम घोटाले में भी कमोबेश ये ही विषय अर्थशास्त्रियों, सरकारों और नियामक संस्थाओं के सामने बड़ी चुनौती बनकर खड़े हुए थे। तब बी रामालिंगम राजू की यह कम्पनी अपने खातों में झूठा मुनाफा दिखाकर सितारा बनी हुई थी। तब भी लेखा परीक्षकों, कंपनी के बोर्ड में स्वतंत्र निदेशकों और नियामक संस्थाओं की भूमिका सवालों के घेरे में थी।
यह बात सही है कि वक्त के साथ समस्याओं का स्वरूप बदला, लेकिन संस्थागत पारदर्शिता की चुनौतियां उसी तरह से कायम हैं। बैंक की सीईओ रहते चंदा कोचर नेे पति की कंपनी और बैंक के एक बड़े कर्जदार को नाजायज लाभ पहुंचाया या नहीं, इसका खुलासा तो रिटायर्ड जस्टिस श्रीकृष्णा की जांच रिपोर्ट से ही होगा। लेकिन वित्तीय लेन-देन वाली संस्थाओं, सरकारी व गैर-सरकारी बैंकों के आंतरिक परीक्षण तंत्र, उनकी प्रक्रियाओं व निर्णयों में पारदर्शिता बढ़ाने और विश्वास बहाली के लिए बड़े कदम उठाए जाने की दरकार है। और यह सब राजनीति से दूर रखकर ही किया जाना चाहिए।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि गैर-सरकारी क्षेत्र ने अपनी सेवा और उपभोक्ता केंद्रित नजरिये की वजह से आम आदमी के दिल में जगह बनाई है। चाहे बैंकिंग क्षेत्र हो या अन्य सेवाएं, अपनी इसी क्षमता और संवेदनशीलता की वजह से ही देश में आज गैर-सरकारी क्षेत्र की तमाम कंपनियां जीवन के हर पहलू में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। आस्था-विश्वास की डोर सलामत रहे, इसके लिए खुद गैर-सरकारी क्षेत्र को आगे बढक़र सुधार के कदम उठाने चाहिए। कॉरपोरेट गवर्नेंस की पुख्ता व्यवस्था के लिए सभी औद्योगिक संगठनों व ऐसी संस्थाओं को साथ बैठकर रास्ता निकालना होगा।

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