जनवरी में ट्विटर के ट्रंप को प्रतिबंधित करने से फैसले से यह बहस तेज हो गई थी कि लोग ऑनलाइन क्या-क्या कह सकते हैं और क्या उनकी अभिव्यक्ति की निगरानी सेवा प्रदाता की जिम्मेदारी है। दोनों ही बहस के अहम मुद्दे हैं, लेकिन अक्सर लोग आगे निकल जाते हैं, बिना यह सवाल किए – क्या हमें सोशल मीडिया पर इतना समय बिताना चाहिए, यह जानते हुए कि हमारे दिमाग पर इसका क्या असर पड़ रहा है, और इस सवाल का जवाब जाने बिना। शायद यह व्यर्थ का विचार हो सकता है।, क्योंकि इंटरनेट का घोड़ा, जंगली घोड़ों के झुंड में शामिल हो चुका है और बहुत आगे निकल चुका है। तब भी, हम में से वे लोग जिन्हें अभी प्रतिबंधित नहीं किया गया है, अपनी आदतों का पुनर्मूल्यांकन कर सकते हैं।
अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना आसान है कि हम पूर्व राष्ट्रपति जैसा व्यवहार नहीं करेंगे, लेकिन पैट्रिशिया लॉकवुड का उपन्यास ‘नो वन इज टॉकिंग अबाउट दिस’ और लोरेन ऑयलर का उपन्यास ‘फेक अकाउंट्स’ यह संदेह दूर करते हैं कि ‘चरम सीमा तक ऑनलाइन’ होना हमारे लिए अच्छा नहीं है, भले ही इससे किसी को तकलीफ की संभावना न के बराबर हो। इसमें कोई संदेह नहीं कि सोशल मीडिया सामान्य लोंगो को ऐसे अधिकार दे सकता है जिसकी वे कल्पना भी नहीं कर सकते। प्तब्लैकलाइव्समैटर और प्तमीटू आंदोलनों से लाखों लोगों ने जाना कि नस्लवादी पुलिसिंग और यौन हिंसा का दायरा कितना व्यापक है। नाइजीरिया और भारत से उठे क्रमश: प्तएंडसार्स और प्तफार्मर्सप्रोटेस्ट जैसे अभियान भी अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंचे। लेकिन यह मेगाफोन तटस्थ भी है। दुर्बुद्धि और हों चाहे परोपकारी, कोई भी इसका इस्तेमाल कर सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर गर्मागर्म बहस में पडऩा कहीं ज्यादा आसान है, बजाय यह समझने और स्वीकारने के कि दुनिया का सबसे ताकतवर वरिष्ठ नागरिक इंटरनेट पर खुद को चार साल तक मूर्ख बनाता रहा, और हममें से ज्यादातर लोग नियमित रूप से यही करते हैं।
खुशकिस्मती है कि कोविड-19 महामारी ने हमें मिथ्या नहीं, असल में खुद के बारे में जानने और दूसरों से मेल-मिलाप का मौका दिया है। अफसोस, ट्रंप अपनी खुशकिस्मती से अनजान हैं। ‘डेली बीस्ट’ की एक रिपोर्ट के अनुसार वह दूसरों को आलोचनात्मक टिप्पणियां पोस्ट करने के सुझाव दे रहे हैं।
(लेखिका संस्कृति और राजनीति के टकराव से समाज पर पडऩे वाले प्रभावों पर लेखन करते हैं)