महामारी के सच से हम अनजान या बेफिक्र !
- ज्यादातर लोगों के पास स्वयं की सहायता ही प्राथमिक उपाय था, लेकिन अधिक प्रभावी व्यवस्था पड़ोसियों और समुदाय से मिली मदद रही।
- स्लम: संकट में सामुदायिक मदद से ही मिला संबल ।

सुजीत कुमार, रिसर्च कंसलटेंट
भारत की करीब 15 करोड़ की आबादी शहरी झुग्गी-झोंपडिय़ों में बसर करती है। यह आंकड़ा कई शहरों की पूरी या आधी आबादी के बराबर है। आलीशान इलाकों की ऊंची इमारतों के साये में, सड़कों और रेल पटरियों के किनारे पुलों और पुलियाओं के नीचे, विस्तार पाते शहरों में बसी ये कच्ची बस्तियां कामवाली बाइयों, बागवानों, ड्राइवरों, रेहड़ी-ठेले वालों, डिलीवरी वालों, मरम्मत का काम करने वालों और धोबिनों का घर हैं। ये लोग शहरी धनाढ्य वर्ग के घरों में काम करते हैं। यह कोई घुमंतू आबादी के लोग नहीं हैं, जिनके मूल निवास गांवों में हैं और वे अतिरिक्त आय के लिए शहर आए हैं। वह आबादी अलग है और लाखों में है। उनकी संख्या शहर और उसके आस-पास के इलाकों में श्रमिकों की जरूरत के मुताबिक बढ़ती-घटती रहती है। लेकिन कच्ची बस्ती में रहने वाले लोग वहां के स्थायी निवासी हैं। कुछ ही ऐसे होंगे जो हाल ही शहर में आए हों, लेकिन ज्यादातर परिवार ऐसे मिलेंगे जो पीढिय़ों से कच्ची बस्ती में रह रहे होंगे।
आजीविका की अनिश्चितता: एक ओर जहां प्रवासी मजदूरों की गंभीर हालत, उनके पलायन के लिए पैदल निकल पडऩे जैसे दृश्यों ने लोगों को उद्वेलित किया, वहीं दूसरी ओर इस बात पर किसी का ध्यान नहीं गया कि कच्ची बस्तियों में रहने वाले लोगों पर महामारी का क्या प्रभाव पड़ा होगा? पटना और बेंगलूरु में किए गए सर्वे से खुलासा होता है कि कच्ची बस्तियों में रहने वाले लोगों पर महामारी की मार भी कुछ कम नहीं पड़ी है। पिछले दस वर्ष के अध्ययन के आधार पर हमने जुलाई से नवम्बर 2020 के बीच इन शहरों की 40 कच्ची बस्तियों में छह टेलिफोन सर्वे किए। लॉकडाउन की घोषणा होते ही कच्ची बस्ती में रहने वाले तकरीबन सभी लोग बेरोजगार हो गए। केवल कुछ ही लोगों की नौकरी बच सकी, जो संगठित क्षेत्र में काम कर रहे थे। पटना में कच्ची बस्ती में रहने वाले 80 प्रतिशत से ज्यादा लोगों की नौकरियां चली गईं। बहाली की रफ्तार काफी धीमी रही और यह अभी अधूरी है। नवम्बर 2020 के मध्य तक बेंगलूरु में कोरोना से पूर्व की आय का एक चौथाई और पटना में एक तिहाई भाग भी बहाल नहीं किया जा सका था। कई माह बाद जब लॉकडाउन में ढील देनी शुरू की गई तो लोगों को फिर से नौकरी पर लेना शुरू तो हुआ लेकिन या तो आधे दिन के लिए या पहले से काफी कम वेतन पर, जबकि कई नौकरियां तो रही ही नहीं। ऐसे में इन लोगों ने बिना काम और भुगतान के कैसे महीनों गुजारे होंगे, इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता।
सहायता का प्रारूप: स्वाभाविक तौर पर यह माना जाता है और उम्मीद की जाती है कि सार्वजनिक एवं निजी संस्थान मुसीबत में फंसे लोगों की मदद के लिए आगे आएंगे। दरअसल सार्वजनिक सहायता तुरंत मिली भी, लेकिन यह जल्द ही खत्म भी हो गई, यह काफी बंटी हुई थी और इससे बहुत कम जरूरतें पूरी हो पाईं। दो अन्य व्यवस्थाएं अधिक प्रभावी थीं। पहली, ज्यादातर लोगों के पास स्वयं की सहायता ही प्राथमिक उपाय था। लोगों ने खाने पर खर्च में कटौती की, पड़ोसी से उधार लिया और अपनी कोई परिसंपत्ति बेची। दूसरी, संभवत: ज्यादा प्रभावी व्यवस्था रही पड़ोसियों और समुदाय से मिली मदद, जिसने जरूरतमंदों को भुखमरी से बचाया। परस्पर सहायता की भावना मौजूद थी, कहीं कम तो कहीं ज्यादा। जब-जब समुदाय ने बेहद कठिन वक्त का सामना किया, तब ऐसे मौके भी आए जब न के बराबर ही उपलब्ध था। भूपतिपुर कच्ची बस्ती (पटना) की चांदमुनि देवी (60) कहती हैं, 'अप्रेल तक सब ठीक रहा। सरकार ने हमें अनाज और बना हुआ खाना दिया, लेकिन इसके बाद ज्यादातर लोग काफी तकलीफ से गुजरे।
दुधारी तलवार: गरीब जनता में नि:स्वार्थ भाव और उदारता के ये किस्से प्रेरणादायी हैं। अगर मुश्किल वक्त में गरीब अपने जैसे ही दूसरे गरीब लोगों पर निर्भर होगा तो ये हालात हम सबके विषय में क्या बयां करते हैं? हम वास्तविकता से अनजान हैं या बेफिक्र हैं?
(सह-लेखक: प्रो. अनिरुध कृष्णा, सैनफोर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक पॉलिसी, ड्यूक यूनिवर्सिटी, यूएस)
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