एक ओर विभिन्न न्यूज चैनलों पर ज्योतिष और भाग्यफल के दैनिक कार्यक्रम आम जनता के तत्त्वबोध को अपदस्थ करने में लगे हैं, तो उधर नई पीढ़ी को प्राचीन ज्ञान-विज्ञान से परिचित कराने के नाम पर अवैज्ञानिक दावों को लेकर लिखी गई जनप्रिय और अर्ध-तकनीकी स्तर की पुस्तकें स्कूल और इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाई जा रही हैं। यह सब वैज्ञानिक चिंतन और मौलिक शोध कार्य के लिए इसलिए हानिकारक है क्योंकि जनमानस में ही नहीं, यहां तक कि प्रबुद्ध लोगों में भी अवैज्ञानिक दावे संदेह पैदा करने लगते हैं।
सूचना के महासागर में हमारा नीर क्षीर विवेक कहीं गुम होता जा रहा है। प्राचीन साहित्य और मान्यताओं से निकाल कर लाई जा रही बातों की वैज्ञानिक उपलब्धियों के रूप में मनभावन पेशकश हमारी वैज्ञानिक समझ को जबरदस्त चुनौती देने लगी है। हम पीछे पलट कर क्यों देखने लगे हैं? क्या ऐसा है कि आधुनिकता की पर्तों के नीचे विश्वगुरु का महान योगदान दबा पड़ा था?
बहुत पहले नहीं, 2001 में ही एस्ट्रोलॉजी को विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने की जद्दोजहद चली। प्राकृतिक घटनाओं को प्राचीन धारणाओं के शीशे के जरिए देखने का चलन मुखर होने लगा। अब गुजरे जमाने के स्वर्णिम दौर में हर बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धि का मूल खोने लगा है। ऐसे में डार्विन, न्यूटन और आइंस्टीन गलत साबित होंगे ही।
जनवरी २०१५ के प्रथम सप्ताह में संपन्न भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अधिवेशन के दौरान महर्षि भारद्वाज कृत वैमानिक शास्त्र पर एक शोध पत्र प्रस्तुत किया गया, जिसके अनुसार प्राचीन भारत में ७००० वर्ष पहले वैमानिकी एक समृद्ध विज्ञान था। हमारे विमान ४० इंजनों से चलते थे और अन्य ग्रहों पर भेजे जाते थे। वैज्ञानिकों और प्रबुद्धों में यह बात चिंता का विषय बनी कि विज्ञान कांग्रेस जैसे गंभीर मंच पर ऐसा शोध एक स्थापित जांच प्रक्रिया को कैसे पार कर गया। इस विषय पर एक वैज्ञानिक मित्र से जब चर्चा की गई, तो बजाय इसके कि बात की संभाव्यता पर गौर करते, उन्होंने यह विचार व्यक्त किया कि प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में उल्लिखित ऐसी बातों में कुछ तो सार होगा, ऐसे ही तो नहीं लिखी गई होंगी।
महज उल्लेख, वह भी बिना वैज्ञानिक प्रक्रिया से सिद्ध किए, का अर्थ संचित ज्ञान नहीं हो सकता। मानव शरीर पर गज-मुख प्रत्यारोपण के रूप में प्लास्टिक सर्जरी में महारत, स्टेम-सेल तकनीक का ज्ञान, आयुर्वेद में कैंसर जैसी गंभीर स्थिति का इलाज करने की क्षमता, परमाणु बम का ज्ञान, ज्योतिष के आगे विज्ञान बौना है आदि ऐसे अनेक दावे हैं जो प्राचीन भारतीय योगदान के नाम पर समय-समय पर सुनने को मिलते हैं।
हमारे ज्ञान की श्रेष्ठता के अनेक दावे अक्सर आधारहीन तर्कों या दोषपूर्ण शोध पर आधारित होते हैं। चूंकि यही बातें जनप्रिय स्तर तक पहुंचती हैं, लोग इन पर विश्वास करने लगते हैं। अब लगता है कि विज्ञान कांग्रेस की जिस कमेटी ने वैमानिकी के शोध-पत्र को प्रस्तुति के लिए पारित किया, उनकी विवेकशीलता ऐसी ही विचारधारा के वजन में दब गई होगी। यह अलग बात है कि मूल ग्रंथ की कथित सत्यता को बेंगलूरु के भारतीय विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों ने 1974 में ही यह सिद्ध कर खारिज कर दिया था कि वह 1900-1922 के बीच ही लिखा गया हो सकता है और उसमें प्रस्तुत विमान भौतिकी के सिद्धांतों के विपरीत हैं, वे उड़ान भर ही नहीं सकते।
इस वर्ष विज्ञान कांग्रेस पंजाब के जालंधर में एक निजी विश्वविद्यालय में आयोजित की गई। यहां भी आंध्र विश्वविद्यालय के कुलपति ने दावा किया कि कौरवों का जन्म टेस्ट ट्यूब तकनीक से हुआ। एक अन्य वक्ता स्वयंभू वैज्ञानिक थे, जिन्होंने दावा किया कि न्यूटन व आइंस्टीन के सिद्धांत गलत थे।
३१ जनवरी २०१८ के पूर्ण चन्द्र ग्रहण के अवसर पर अनेक गलत धारणाओं से हमारा साक्षात्कार हुआ। अब तो जो ग्रहण भारत में नहीं पड़ते, उन पर भी धार्मिक चर्चा न्यूज चैनलों पर शुरू हो जाती है। यह सारी चर्चा वैज्ञानिक चिंतन को खत्म कर देती है और ऐसा पश्चगामी व्यवहार हमारे देश और समाज के लिए बेहद हानिकारक है।
यह एक गंभीर स्थिति है। यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि सही साहित्य आम जन को आसानी से उपलब्ध नहीं है। आम जन आम तौर पर इस बात से भी अनजान है कि उसे वास्तव में क्या पढऩा चाहिए, कौन-सा साहित्य पढऩे से उनका वैज्ञानिक चिंतन प्रखर होगा। इसका निराकरण केवल प्रामाणिक शोध पर आधारित जनप्रिय भाषा में लिखी गई पुस्तकों को जनता के समक्ष लाए जाने से ही हो सकता है। इस कार्य में प्रबुद्ध लोगों, वैज्ञानिकों, विज्ञान संस्थाओं व प्रसार माध्यमों की भूमिका अहम है। ऐसी पुस्तकों से समुचित और संतुलित प्रसार न केवल प्रभावशाली होगा, बल्कि बढ़ते अंधविश्वास पर लगाम भी लगा सकता है।
(भारतीय ताराभौतिकी संस्थान, बेंगलूरु से सेवानिवृत्त। खगोल विज्ञान के इतिहास पर शोधरत।)