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सिर्फ इमारतों से नहीं हटेगी बेरोजगारी

Published: Nov 26, 2017 09:57:18 am

भारत के सामने फिलहाल सबसे बड़ी चुनौती इन स्नातक डिग्रीधारी युवाओं को अर्थव्यवस्था की मुख्य धारा में लाना है।

indian youth
– पी. पुष्कर

आज 67 प्रतिशत से ज्यादा छात्र निजी कॉलेजों में पढ़ रहे हैं। इनमें से ज्यादातर मुनाफा कमाने वाले मालिकों के हैं, जिन्हें कुशल प्रबंधक इस प्रकार चला रहे हैं कि वे छात्रों से वसूली कर अपनी जेबें भरते रहें। ऐसे लोभी संस्थान छात्रों से फीस के नाम पर जो मोटी रकम वसूलते हैं, उसके लिए छात्र बैंकों से ऋण लेते हैं।
हमारे देश में कॉलेज जाने वाले छात्रों की संख्या करीब साढ़े तीन करोड़ है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यह संख्या सर्वाधिक है। कॉलेजों में नामांकन करवाने वाले छात्रों का सकल अनुपात 2012 में जहां 19.4 प्रतिशत था, वहीं 2015 तक यह बढ़ कर 24.5 प्रतिशत हो गया। डिग्रियों की बढ़ती मांग के चलते उच्च शिक्षण संस्थानों की संख्या भी बढ़ी है। हालांकि इसमें ज्यादा वृद्धि निजी शिक्षण संस्थानों की ही हुई है। केंद्र सरकार ने भी देश भर में आईआईटी और आईआईएम संस्थान खोलने की घोषणा की है।
उम्मीद की जानी चाहिए कॉलेज छात्रों की संख्या में यह वृद्धि कम से कम कुछ समय तक तो बरकरार रहेगी। जल्द ही भारत की गिनती ऐसे देशों में होगी जो दुनिया में न केवल सर्वाधिक युवा जनसंख्या वाला देश होगा बल्कि सर्वाधिक कालेज छात्रों वाला भी। ऐसे में भारत को अधिक कॉलेज और विश्वविद्यालयों की जरूरत होगी। बड़ी-बड़ी इमारतें बना कर उन्हें कॉलेज का नाम दे देना समस्या का हल नहीं है, जो देश का युवा और देश, दोनों झेल रहे हैं।
भारत के सामने फिलहाल सबसे बड़ी चुनौती इन स्नातक डिग्रीधारी युवाओं को अर्थव्यवस्था की मुख्य धारा में लाना है। आज बड़ी चुनौती उन्हें ऐसे रोजगार देना है जिसका प्रशिक्षण उन्होंने लिया हो ताकि वे देश की समृद्धि में योगदान देने के साथ ही अपना जीवन स्तर भी सुधार सकें। अगर भारत इस दिशा में कुछ उपलब्धि हासिल करना चाहता है तो उसे कुछ समय के लिए नए कॉलेजों का निर्माण रोक कर पहले से निर्मित मौजूदा कॉलेजों की हालत में सुधार करना होगा।
सरकार को कॉलेजों के नाम पर नई इमारतें खड़ी करने के बजाय बेहतर कॉलेज बनाने पर जोर देने की जरूरत है। इसकी तीन खास वजह हैं- पहली, मौजूदा कॉलेजों से पढक़र निकलने वाले स्नातक बेरोजगारी में ही इजाफा कर रहे हैं। सार्वजनिक और निजी दोनों ही संस्थानों में शिक्षा की गुणवत्ता इतनी कम है कि साल के अंत में डिग्री के नाम पर छात्रों को एक कागज थमा दिया जाता है जिसकी कीमत बाजार में इतनी भी नहीं है, जितनी वे एक महीने की कॉलेज की फीस देते हैं।
व्यावसायिक डिग्री देने वाले ऐसे कई कॉलेज इसलिए बंद करने पड़े क्योंकि वे पर्याप्त संख्या में छात्रों को भर्ती नहीं कर पा रहे थे। लेकिन उनकी जगह फिर से नए कॉलेज बन गए जिससे कॉलेज स्नातकों के रोजगार की दर बुरी तरह से गिरी है। सार्वजनिक संस्थानों की संख्या पहले ही कम हो चुकी है। इसलिए अब नए निजी कॉलेजों पर कुछ समय के लिए रोक लगा देनी चाहिए। दूसरी वजह, जिसके लिए भारत को नए कॉलेजों के निर्माण पर रोक लगा देनी चाहिए वह यह है कि कॉलेज की डिग्री रोजगार संभावनाओं में तो कोई सुधार नहीं करती बल्कि छात्रों को कर्ज में और डुबो देती है।
आज 67 प्रतिशत से ज्यादा छात्र निजी कॉलेजों में पढ़ रहे हैं। इनमें से ज्यादातर मुनाफा कमाने वाले मालिकों के हैं, जिन्हें कुशल प्रबंधक इस प्रकार चला रहे हैं कि वे छात्रों से वसूली कर अपनी जेबें भरते रहें। ऐसे लोभी संस्थान छात्रों से फीस के नाम पर जो मोटी रकम वसूलते हैं, उसके लिए छात्र बैंकों से ऋण लेते हैं। उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु लिए जाने वाले ऋणों में निरंतर वृद्धि देखने को मिल रही है। बहुत से ऐसे ऋण बैंकों द्वारा वसूल ही नहीं हो पाते। इसकी जिम्मेदार कुछ हद तक सरकार ही है। ऐसा ना होने की स्थिति में ज्यादातर छात्र व उनके परिवार पीछे छूट जाएंगे क्योंकि निजी कॉलेजों से पढ़ कर निकले ये छात्र अपनी आजीविका के लिए नियमित रोजगार की मांग करेंगे।
तीसरी वजह यह है कि कॉलेज डिग्री पाने का मतलब समझा जाता है कि डिग्रीधारी के जीवन स्तर में सुधार आएगा। अधिकतर ऐसा नहीं होता। भारत जैसे विकासशील देश में कर्ज में डूबे स्नातक डिग्रीधारी के लिए सामाजिक परिस्थितियां और विकट हो जाती हैं। समाज में पहले ही उच्च-मध्यम जाति व हिन्दू मुस्लिम जैसी विषमताएं व्याप्त हैं। ये सब एक जटिल सामाजिक परिवेश तैयार करते हैं, जिसमें जीवन किसी चुनौती से कम नहीं। जाहिर है आज का युवा बेचैन है। किसी न किसी मसले पर आए दिन होने वाली हिंसा इसका संकेत है कि देश किस दिशा में जा रहा है?
देश के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती यही है कि बड़ी संख्या में कॉलेज स्नातकों को अर्थव्यवस्था की मुख्यधारा से जोड़ा जाए। यानी उन्हें वे रोजगार उपलब्ध करवाना, जिसकी उन्होंने शिक्षा अर्जित की है, प्रशिक्षण लिया है ताकि वे देश के साथ-साथ अपनी स्थिति में भी सुधार कर सकें। यह काफी व्यापक व्यवस्था है, खास तौर पर चरमराती शिक्षा व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में, जहां देश की सरकारें भी स्कूल- कॉलेज की समस्याओं को सबसे निचले पायदान पर रखती हैं।
एक ओर जहां भारी संख्या में स्नातक बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं दूसरी ओर मौजूदा सरकार रोजगार सृजन के लिए कुछ नहीं कर रही। भारतीय युवाओं के सुनहरे भविष्य की संभावनाएं धुंधली पड़ती जा रही हैं। इसके अलवा आर्टिफिशियल इंटैलीजेंस और मशीनीकरण ने रोजगार चिंताओं को कई गुना बढ़ा दिया है। ज्यादा कॉलेज बनाने से इनमें से कोई समस्या हल होने वाली नहीं है। हालांकि मौजूदा कॉलेजों में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार कर काफी हद तक इस समस्या का समाधान किया जा सकता है।
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