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बार-बार जनआंदोलन की नौबत क्यों?

Published: Dec 18, 2020 10:49:38 pm

Submitted by:

Nitin Kumar

नेताओं ने लम्बे समय से जनता के लिए कार्य करना बंद कर दिया है। यही वजह है कि नेताओं तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए अलग-अलग कारणों से जनआंदोलन देश-प्रदेश में सत्ता के केंद्रों का रुख करने को मजबूर होते हैं। लोकतंत्र एक अधिकार होने के साथ दायित्व भी है।

Jan aandolan

Jan aandolan

शबाना मित्रा, प्रोफेसर, सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी, आइआइएमबी

जब लोकतांत्रिक मूल्य खतरे में हों तो विरोध के अधिकार पर भी सवाल उठाए जाते हैं। लेकिन सवाल यह है कि ऐसी स्थिति पैदा क्यों होती है जहां से बाहर निकलने का कोई रास्ता ही दिखाई नहीं देता? स्वतंत्र भारत में हम एक बार फिर एक बड़ा आंदोलन देख रहे हैं। संविधान में भी विरोध प्रदर्शन का अधिकार प्रतिष्ठापित है ताकि भागीदारीपूर्ण लोकतंत्र के निर्माण में सबकी आवाज सुना जाना सुनिश्चित किया जा सके। आज जनविरोध भारतीय राजनीति का अभिन्न अंग बन चुका है और स्वतंत्रता संग्राम के समय भारत ने ही दुनिया के समक्ष विरोध का स्वरूप ‘सत्याग्रहÓ प्रस्तुत किया था।
जन विरोध दरअसल अंतिम विकल्प है। जब लोगों के पास कोई चारा नहीं रह जाता तब वे यह रास्ता अपनाते हैं। हर जन आंदोलन के बाद ऐसे लोगों की संख्या बढ़ जाती है जिनका लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर भरोसा कम होता दिखाई देता है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि जनप्रतिनिधि राज्य विधानसभाओं और संसद के सदनों में जनता के विचार प्रस्तुत कर रहे हैं और फिर यह भी कि सदन में बनने वाले कानून जनता की विचारधारा के अनुरूप हैं। क्या लोकतंत्र को इसी तरह काम नहीं करना चाहिए?
जनता सड़कों पर इसलिए उतरती है क्योंकि उसे जन प्रतिनिधियों पर भरोसा नहीं रह गया है। वे यह विश्वास नहीं करते कि उनके जनप्रतिनिधियों द्वारा लिए गए निर्णय उनकी भलाई के लिए हैं या उनके विचारों से मेल खाते हैं। लोकतंत्र में क्या इसके लिए कोई गुंजाइश है? इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि जनता अपने नेताओं पर विश्वास क्यों नहीं करती? बीते तीन दशकों से देखा जा रहा है कि आपराधिक पृष्ठभूमि के नेता चुन कर सरकार में आ जाते हैं। चुने हुए प्रतिनिधियों के लिए भ्रष्टाचार, चुनाव जीतने का हथकंडा बन गया है। चुनावी खर्च के लिए पैसा आता कहां से है? यह सवाल अनुत्तरित ही रहता है। वर्ष 2019 के आंकड़ों के अनुसार लोकसभा सदस्यों में से 80 प्रतिशत करोड़पति हैं और दोबारा निर्वाचित सांसदों ने अपनी संपत्ति में तकरीबन 140 प्रतिशत की वृद्धि दर्शाई है। एक ही कार्यकाल के दौरान इतने सारे राजनेता करोड़पति कैसे हो गए?
नेताओं ने लम्बे समय से जनता के लिए कार्य करना बंद कर दिया है। यही वजह है कि नेताओं तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए अलग-अलग कारणों से जनआंदोलन देश-प्रदेश में सत्ता के केंद्रों का रुख करने को मजबूर होते हैं। लोकतंत्र एक अधिकार होने के साथ दायित्व भी है। एक सुचारू लोकतंत्र के लिए नागरिकों को अपना दायित्व याद रखते हुए समझदारी से मतदान करना चाहिए। चुनाव पूर्व किए वादों पर खरा न उतरने पर वोट की ताकत ही राजनेताओं को जवाबदेह बना सकती है।
वे दिन लद गए, जब खुद की सेवा के बजाय जनसेवा से नेता प्रोत्साहित होते थे। आज के राजनेताओं में जिम्मेदारी का भाव जनाक्रोश के भय से ही जागता है।

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