scriptकलाकारों के व्यक्तित्व के अनछुए पहलू आए सामने | Unknown aspects of artist's personality came to the fore | Patrika News

कलाकारों के व्यक्तित्व के अनछुए पहलू आए सामने

Published: Mar 12, 2023 09:05:44 pm

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Patrika Desk

बहरहाल, अव्वल तो कलाओं पर स्तरीय पत्रिकाएं ही नहीं हैं और जो हैं, वे सामान्य जानकारियों से भरी होती हैं। उनसे मौलिक स्थापना की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। इस दृष्टि से ‘संगना’ का यह अंक अपने आप में खास है। इसलिए भी कि यहां इब्राहिम अल्काजी, श्रीराम लागू और गिरीश कर्नाड के विचार-उजास से पाठक रू-ब-रू होते हैं।

कलाकारों के व्यक्तित्व के अनछुए पहलू आए सामने

कलाकारों के व्यक्तित्व के अनछुए पहलू आए सामने

डॉ. राजेश
कुमार व्यास
भरतमुनि ने नाट्य को दृश्य कला माना है। ऐसी दृश्य कला जिसमें दूसरी सभी कलाओं का समावेश है। नाट्यशास्त्र में नाटक को ‘सर्वशिल्प-प्रवर्तकम्’ कहा गया हैं। गौर करें, हमारे यहां कलाओं की वैदिक कालीन संज्ञा भी शिल्प है। संगीत, नृत्य, नाट्य, वास्तु, चित्र आदि तमाम कलाएं तब शिल्प में शामिल थीं। नाट्यशास्त्र में नाट्य कला को दूसरी कलाओं की साधना मानते हुए भी स्वतंत्र कला कहा गया है। शायद इसलिए कि इसमें प्रयोग की अनंत संभावनाएं हैं।
यह विडम्बना ही तो है कि प्रयोग के इस अनंत संभावना पक्ष में जिन्होंने परंपरा से चले आ रहे रंगकर्म जड़त्व को तोड़ते नया कुछ किया है, उनके बारे में ढंग से कहीं कुछ विमर्श ही नहीं है। इस दृष्टि से संगीत नाटक अकादमी की पत्रिका ‘संगना’ का नवीन अंक संग्रहणीय है। इसमें इब्राहिम अल्काजी, श्रीराम लागू और गिरीश कर्नाड की मौलिक रंग-स्थापनाओं और चिंतन के आलोक में उनके व्यक्तित्व के अनछुए पहलू उभरकर सामने आए हैं। ‘संगनाÓ के इस अंक में देवेन्द्रराज अंकुर, जयदेव तनेजा, सुधा शिवपुरी, दलगोविंद रथ, गोविंद नामदेव, रानू मुखर्जी, शरद दत्त आदि के आलेखों, संस्मरणों में भारतीय रंगकर्म से जुड़ी शास्त्रीय और लोक परम्पराओं के अंतर्गत अल्काजी, श्रीराम लागू और गिरीश कर्नाड के नाट्यकर्म की अनायास ही विरल विवेचना सामने आई है। सुशील जैन और तेजस्वरूप त्रिवेदी ने संपादन के अंतर्गत बिना किसी वैयक्तिक आग्रह के इन तीनों ही जनों के व्यक्तित्व संदर्भ में उनके कला अवदान की विश्लेषणात्मक सामग्री जतन कर जुटाई है।
अंक में इब्राहिम अल्काजी की रंगदृष्टि, मौलिक कल्पनाशीलता से जुड़ी यादें हैं और ढेर सारी वे बातें हैं, जिनसे पता चलता है कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय को विश्व का प्रमुख संस्थान बनाने का किस कदर जुनून उनमें समाया हुआ था। थिएटर की जीवंता के संदर्भ में उनका यह कहा हुआ भी यहां मथता है कि ‘लंबे समय से स्थापित परंपराओं पर सवाल खड़े करना चाहिए,…हमें उन सामान्य सत्यों के खिलाफ खड़े होना चाहिए जो बहुत समय पहले ही अनुत्पादक और बंजर हो चुके हैं।’ इसी तरह इब्राहिम अल्काजी ने एक स्थान पर अभिनय के ‘प्रशिक्षण’ या ‘अनुशासन’ की बजाय ‘नर्सिंग’ शब्द के उपयोग का खुलासा किया है, जिसमें माली की तरह शिक्षक नाजुक और सुकुमार पौधे के विकास में प्रवृत्त होता है। नाट्य निर्देशक, अभिनेता श्रीराम लागू ने जब ईश्वर को रिटायर कर देने की बात कही थी, तब उनका बहुत विरोध हुआ था। उनके प्रगतिशील रंगकर्म अवदान के संदर्भ में ‘संगना’ के इस अंक में उनके इसी विचार की बढ़त है। इसके साथ ही उनका वह रंगकर्म चिंतन भी यहां है, जिसमें अभिनेता को तत्वचिंतक और दार्शनिक होने पर जोर दिया गया है। एक आलेख में शरीर के लचीलेपन में अभिनय की संभावनाओं पर भी उनकी महती दृष्टि उभर कर सामने आई है।
गिरीश कर्नाड ने पुरा और लोक कथाओं के आशयों में ‘ययाति’, ‘हयवदन’, ‘नागमंडल’, ‘तुगलक’ जैसी महती नाट्यकृतियां हमें दी हंै। अंक में उनके नाट्य चिंतन की यह बात भी विमर्श के लिए उकसाती है कि नाट्य में किस्सागोई, प्रतीकों के जरिए नए रूपक रचने और अर्थ की उत्पत्ति से जुड़ी प्रयोगधर्मिता जरूरी है। कर्नाड द्वारा प्रकाश पुंजों से कहानी की बढ़त और नाटक में अर्थ की उत्पत्ति के संदर्भ में उनके रंगकर्म पर अंक में महती जानकारियां, उनका साक्षात्कार और ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने पर दिया वक्तव्य उनके विचारों से हमारी निकटता कराता है। बहरहाल, अव्वल तो कलाओं पर स्तरीय पत्रिकाएं ही नहीं हैं और जो हैं, वे सामान्य जानकारियों से भरी होती हैं। उनसे मौलिक स्थापना की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। इस दृष्टि से ‘संगना’ का यह अंक अपने आप में खास है। इसलिए भी कि यहां इब्राहिम अल्काजी, श्रीराम लागू और गिरीश कर्नाड के विचार-उजास से पाठक रू-ब-रू होते हैं।
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