scriptबेवजह | Unnecessary questions on prayer meeting in Kendriya Vidyalayas | Patrika News

बेवजह

locationजयपुरPublished: Jan 31, 2019 07:27:34 pm

Submitted by:

dilip chaturvedi

आवश्यकता इस बात की है कि न्यायपालिका में किसी न किसी स्तर पर यह तय हो, कि वह कैसे मुद्दों पर अपनी शक्ति और समय लगाए।

prayer meet in Kendriya Vidyalayas

prayer meet in Kendriya Vidyalayas

एक भारतीय के नाते कई मौकों पर लगता है कि हम हिन्दुस्तानी कहीं हमारे संविधान द्वारा हमें दिए अधिकारों का दुरुपयोग तो नहीं कर रहे हैं? इसका नवीनतम उदाहरण सर्वोच्च न्यायालय की खण्डपीठ द्वारा सोमवार को दिया वह निर्णय है, जिसमें केन्द्रीय विद्यालयों में हर सुबह होने वाली प्रार्थना सभा को हिन्दू धर्म का प्रचार मानने या नहीं मानने का निर्णय देने के लिए संविधान पीठ के गठन की बात है। प्रार्थनाएं भारतीय ही नहीं, दुनिया भर के स्कूलों में होती हैं। धर्मप्रधान देशों में हो सकता है, इनमें धर्म आता हो, लेकिन भारत जैसे देश में जो हजारों सालों से, सभी धर्मों के भाईचारे और सारी दुनिया एक कुटुम्ब है, की अवधारणा में भरोसा रखता है, वहां जीवन की सच्ची राह बताने वाले किसी एक भाषा में गाए मंत्र या प्रार्थना पर सवाल उठाना बहुत ही दुखद है। यह दुख तब और भी बढ़ जाता है, जब हमारे सर्वोच्च न्यायालय की एक खण्डपीठ बारह महीने उस पर सुनवाई करके उसे संविधान पीठ को सौंप देती है! क्या ‘मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलने, मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलने और मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले जाने’ की प्रार्थना और उसका अर्थ इतना गूढ़ है कि उस पर निर्णय खण्डपीठ नहीं कर सकती? क्यों हमारी संविधान पीठ को जिसमें देश के सर्वोत्कृष्ट न्यायिक मस्तिष्क होते हैं, उसे ऐसे मसलों पर अपना समय जाया करना चाहिए?

आज देश की तमाम अदालतों के सामने करीब साढ़े तीन करोड़ मुकदमे विचाराधीन हैं। इनमें से तीन करोड़ अधीनस्थ न्यायालयों में हैं तो करीब 60 हजार सर्वोच्च न्यायालय में। शेष मामले देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों में लम्बित हैं। सबसे पुराना मामला कब का है, यह जानना भी बहुत मेहनत का काम है। देश में, न्यायाधीशों के पांच हजार से ज्यादा पद रिक्त हैं। और तो और देश के तमाम उच्च न्यायालयों के 40 प्रतिशत पद रिक्त हैं। सर्वोच्च न्यायालय के सामने कॉलेजियम, लोकपाल, राममंदिर और आरक्षण जैसे न जाने कितने महत्त्वपूर्ण मामले सालों से विचाराधीन हैं। उनकी सुनवाई होने, नहीं होने को भी हमारे राजनीतिक दल मुद्दा बना रहे हैं। तब यह प्रश्न स्वाभाविक तौर पर उठता है कि संविधान प्रदत्त अधिकारों के नाम पर सर्वोच्च न्यायालय या हमारी न्यायपालिका को किन मामलों को सुनवाई के लिए स्वीकार करना चाहिए और किन मामलों को प्रथम दृष्ट्या ही खारिज कर देना चाहिए।

कमोबेश केन्द्रीय विद्यालय जैसी ही प्रार्थना इस देश के तमाम सरकारी-गैर सरकारी स्कूलों में होती है। आज से नहीं, पिछले 72 सालों से हो रही है। उसी प्रार्थना को कर-कर के उनमें पढऩे वाले 14 विद्यार्थी देश के राष्ट्रपति और 15 विद्यार्थी प्रधानमंत्री बन गए। करीब ढाई सौ विद्यार्थी देश के सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश अथवा न्यायाधीश रह लिए अथवा हैं। अन्य न्यायालयों, संसद, विधानसभाओं और तमाम भारतीय संस्थाओं में ओहदेदार बन गए। तब प्रार्थना पर सवाल उठाना क्या उन सबकी निष्ठा और समर्पण पर सवाल उठाना नहीं है? बहत्तर वर्षों में भारतीय स्कूलों से पढ़कर निकले करोड़ों विद्यार्थियों में सभी धर्मों के अनुयायी होंगे। विरले ही होंगे, जिन्होंने उन प्रार्थनाओं या उनमें हाथ जोडऩे पर सवाल उठाए हों। ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि न्यायपालिका में किसी न किसी स्तर पर यह तय हो, कि वह कैसे मुद्दों पर अपनी शक्ति और समय लगाए। स्वयं प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने कुछ समय पहले अदालती कामकाज पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि कोई भी आता है और एक आदेश लेकर चला जाता है। क्या ऐसी स्थिति बनी रहनी चाहिए? देश की जनता का न्यायपालिका में, सदा से विश्वास रहा है। न्याय मिले और शीघ्र मिले, इसके लिए जरूरी है कि न्यायपालिका में पद रिक्त न रहें और वहां फालतू के मामले न हों।

loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो