आज देश की तमाम अदालतों के सामने करीब साढ़े तीन करोड़ मुकदमे विचाराधीन हैं। इनमें से तीन करोड़ अधीनस्थ न्यायालयों में हैं तो करीब 60 हजार सर्वोच्च न्यायालय में। शेष मामले देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों में लम्बित हैं। सबसे पुराना मामला कब का है, यह जानना भी बहुत मेहनत का काम है। देश में, न्यायाधीशों के पांच हजार से ज्यादा पद रिक्त हैं। और तो और देश के तमाम उच्च न्यायालयों के 40 प्रतिशत पद रिक्त हैं। सर्वोच्च न्यायालय के सामने कॉलेजियम, लोकपाल, राममंदिर और आरक्षण जैसे न जाने कितने महत्त्वपूर्ण मामले सालों से विचाराधीन हैं। उनकी सुनवाई होने, नहीं होने को भी हमारे राजनीतिक दल मुद्दा बना रहे हैं। तब यह प्रश्न स्वाभाविक तौर पर उठता है कि संविधान प्रदत्त अधिकारों के नाम पर सर्वोच्च न्यायालय या हमारी न्यायपालिका को किन मामलों को सुनवाई के लिए स्वीकार करना चाहिए और किन मामलों को प्रथम दृष्ट्या ही खारिज कर देना चाहिए।
कमोबेश केन्द्रीय विद्यालय जैसी ही प्रार्थना इस देश के तमाम सरकारी-गैर सरकारी स्कूलों में होती है। आज से नहीं, पिछले 72 सालों से हो रही है। उसी प्रार्थना को कर-कर के उनमें पढऩे वाले 14 विद्यार्थी देश के राष्ट्रपति और 15 विद्यार्थी प्रधानमंत्री बन गए। करीब ढाई सौ विद्यार्थी देश के सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश अथवा न्यायाधीश रह लिए अथवा हैं। अन्य न्यायालयों, संसद, विधानसभाओं और तमाम भारतीय संस्थाओं में ओहदेदार बन गए। तब प्रार्थना पर सवाल उठाना क्या उन सबकी निष्ठा और समर्पण पर सवाल उठाना नहीं है? बहत्तर वर्षों में भारतीय स्कूलों से पढ़कर निकले करोड़ों विद्यार्थियों में सभी धर्मों के अनुयायी होंगे। विरले ही होंगे, जिन्होंने उन प्रार्थनाओं या उनमें हाथ जोडऩे पर सवाल उठाए हों। ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि न्यायपालिका में किसी न किसी स्तर पर यह तय हो, कि वह कैसे मुद्दों पर अपनी शक्ति और समय लगाए। स्वयं प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने कुछ समय पहले अदालती कामकाज पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि कोई भी आता है और एक आदेश लेकर चला जाता है। क्या ऐसी स्थिति बनी रहनी चाहिए? देश की जनता का न्यायपालिका में, सदा से विश्वास रहा है। न्याय मिले और शीघ्र मिले, इसके लिए जरूरी है कि न्यायपालिका में पद रिक्त न रहें और वहां फालतू के मामले न हों।