उ.प्र. विधानसभा के रूल ऑफ प्रोसीजर में स्पष्ट कहा गया है कि विधानसभा कार्यों का संचालन हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि में होगा। हालांकि यहां विधानसभा कार्यवाही की भाषा की विस्तृत व्याख्या की गई है लेकिन शपथ की भाषा के बारे में स्पष्टत: कुछ नहीं कहा गया।
देश की कुछ विधानसभाओं में शपथ और सदन की कार्यवाही की भाषा के बारे में अलग से उल्लेख किया गया है। उ.प्र. विधानसभा के जो नियम हैं, उनमें सामान्य कामकाज की भाषा और शपथ की भाषा के बीच कोई अंतर नहीं हैं।
हालांकि उर्दू के खिलाफ एक पूर्वाग्रह स्पष्ट रूप से दिखता है जब उर्दू का विरोध संस्कृत सम्मान के मुकाबले में किया जाता है। कम से कम 13 भाजपा विधायकों ने संस्कृत में शपथ ली और उन्हें दोबारा हिन्दी में शपथ लेने के लिए इसलिए नहीं कहा गया क्योंकि संस्कृत को देवनागरी लिपि में लिखा गया था। देवनागरी लिपि विधानसभा की लिपि है।
रूल्स ऑफ प्रोसीजर्स के मुताबिक देवनागरी लिपि की जरूरत केवल लिखने के लिए है, मतलब कार्यवाहियों का रिकॉर्ड रखने के लिए। इसका असर यह हुआ कि सदन में तो हिन्दी में बोला जाता है और रिकॉर्ड केवल देवनागरी लिपि में ही रखे जाते हैं।
यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि नियमों में संस्कृत का कहीं भी उल्लेख नहीं है। संसदीय स्तर पर देखा जाए, तो संसद के सदस्य अंग्रेजी या संविधान की आठवीं अनुसूची में निर्दिष्ट 22 भाषाओं में से किसी में भी शपथ या प्रतिज्ञा लेने को स्वतंत्र हैं।
संसद सदस्यों को न केवल उर्दू में शपथ लेने के लिए अनुमति दी गई है बल्कि भाषण भी उर्दू में वितरित किए गए हैं। ये भाषण सामान्यत: देवनागरी लिपि में छपे होते होते हैं लेकिन जब सदस्य विशेष रूप से अनुरोध करता है कि उसे ये भाषण फारसी लिपि में मिलें तो ये भाषण देवनागरी लिपि में प्रिंट किए जाते हैं।
यह सम्मान किसी भी भेदभाव के बिना संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लखित सभी 22 भाषाओं के लिए सभी राज्यों पर स्वत: ही लागू होता है। यदि कोई राज्य ऐसा नहीं कर रहा था तो यह मनमानी कार्रवाई का दोषी है और उसने संवैधानिक अधिकारों को नहीं माना है।
उत्तर प्रदेश के मामले में उर्दू के साथ व्यवहार सभी को आश्चर्य में डालता है। उर्दू आधिकारिक तौर पर उत्तरप्रदेश सरकार की दूसरी भाषा है। सवाल यह है कि विधानसभा में इसे क्यों अनुमति नहीं दी जानी चाहिए?
उर्दू को सम्मान का भार सिर्फ राज्य की नई भाजपा सरकार पर ही नहीं है बल्कि पूर्व की सपा, बसपा और कांग्रेस सरकारें भी इसकी जिम्मेदार हैं। उदाहरण के लिए समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान ने अपनी शपथ क्यों वापस ले ली और उन्होंने परिपाटी बदलने की कोशिश क्यों कभी नहीं की जबकि वह पूर्व में अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली सरकार में संसदीय कार्य मंत्री थे।