scriptआर्ट एंड कल्चर : मिसरी जुबां में कड़वी डली, ये कैसी हवा चली | Urdu is not the language of any religion, it is Hindustani language. | Patrika News

आर्ट एंड कल्चर : मिसरी जुबां में कड़वी डली, ये कैसी हवा चली

locationनई दिल्लीPublished: Oct 30, 2021 12:04:32 pm

Submitted by:

Patrika Desk

– हमें यह समझना होगा कि उर्दू किसी मजहब की भाषा नहीं है, यह हिंदुस्तानी भाषा है- तीज-त्योहारों पर अंग्रेजी की हेडलाइंस वाले विज्ञापनों से अखबार रंगे पड़े होते हैं। हमारी शुभकामनाएं अंग्रेजी के टुकड़ों के बगैर अधूरी हैं, तो उर्दू से बैर क्यों?

आर्ट एंड कल्चर : मिसरी जुबां में कड़वी डली, ये कैसी हवा चली

आर्ट एंड कल्चर : मिसरी जुबां में कड़वी डली, ये कैसी हवा चली

सुशील गोस्वामी, (सदस्य, सीबीएफसी)

है पी दीपावली! युगों से इंडिया यों ही तो इस बड़े त्योहार पर शुभकामनाएं व्यक्त किया करता है। किसी को, कभी भी ‘हैपी’ शब्द के उस पार कोई सम्प्रदाय या धर्म नहीं दीखा। पर त्योहार के जरा पहले, त्योहार ही को इंगित करता उर्दू का एक टुकड़ा क्या आया, कुछ लोगों ने उर्दू को इक सम्प्रदाय या एक धर्म का पाया।

उर्दू किसकी है, भाई? यहां यह नहीं दोहराया जाएगा कि उर्दू कैसे जनमी या इसमें तद्भव शब्द भरे पड़े हैं, यह असेम्बल्ड भाषा है। यहां यह याद दिलाया जाएगा कि उर्दू हिंदुस्तान की है। भले फिजी, बहरीन या उजबेकिस्तान तक में बुदबुदाई जाती हो। यहां यह भी जोड़ा जाएगा कि हिंदुस्तान योग यानी जोडऩे का देश है जहां के पुष्टिआचार्य गोस्वामी बि_लनाथ जी सैयद इब्राहिम को भक्ति में समाहित कर रसखान बना देते हैं। कितनी भाषाओं की नदियां बहते हुए भारत के किसी न किसी हिस्से पर अपने हिस्से छोड़ गईं व फिर वे हिस्से हमारा हिस्सा ही हो गए। हिंदी-उर्दू ने सबको अपनाया और खुद पल्लवित हुईं। यही तो भाषा के उद्विकास का मार्ग है।

कौन-सी ऐसी भाषा है जिसकी शब्दावली वही है जो उसके जनम से थी? शायद कोई नहीं। सब भाषाएं उठती हैं म्यूचुअल लेन-देन से, और यह बड़ा प्राकृतिक तरीका है समृद्धि का। भाषा से धर्म व्यक्त होते रहे हैं, धर्म की कोई भाषा नहीं। भाषा अवाम की सदा। उर्दू हिंदुस्तानी है, रूह में रची-बसी, जबकि अंग्रेजी – प्रसून जोशी की व्याख्यानुसार – एक हुनर है, सीखने की चीज है कि जग घूमने में दिक्कत न आने पाए। अब बात कर ही लें कि क्यों यह सब?

दरअसल हाल ही में, ऐन दिवाली के मौके पर ‘जश्न-ए-रिवाज’ तैयार कपड़ों के एक ब्रांड के ऐड्वर्टायजिंग कैम्पेन की शब्दावली रखी गई थी, जिसके विरोध में उतर कर किन्हीं लोगों ने ब्रांड का दुपट्टा छीन लिया। कैम्पेन वापस लिया गया। इसे ब्रांड के कर्ता-धर्ताओं की कमअक्ली का नमूना कहना मुनासिब होगा या इसे खुद ही के ब्रांड में कुल्हाड़ी मारने की उनकी बदनीयती या फिर एक नफीस ‘फ्रेज’ को ध्यानाकर्षण के लिए परोसना कहा जाए, फैसला फिलवक्त सुरक्षित रख लेते हैं। बस, विचार यह करते हैं कि बरसों से अंग्रेजी में पगी हैपी होलियां, हैपी दिवालियां, आखा तीजें अथवा हैपी बैसाखियां क्यों नहीं किसी को चुभतीं? अंग्रेजी हमारे पूर्वज बना कर रख छोड़ गए थे हमारे दैनन्दिन उपयोग के वास्ते?

‘जश्न-ए-रिवाज’ अर्थात परम्परा का उत्सव! सीधी बात! हमारी हिंदुस्तानी ने हमारे महोत्सव को बयान कर दिया, बस! क्यों यह दौर आया है कि हम ऐसे छुई-मुई हो उठे कि मन की बात न हो तो सिकुड़ जाएं!

हम इतने असहिष्णु क्यों हो गए हैं कि टेलिविजन या फोनों की स्क्रीनें तड़कने लगें? सवाल हमारे जहनी विकास और मानसिकता को ले कर है। तीज-त्योहारों पर अंग्रेजी की हैडलाइंस वाले विज्ञापनों से अखबार रंगे पड़े होते हैं, हमारी शुभकामनाएं अंग्रेजी के टुकड़ों के बगैर अधूरी हैं तो उर्दू से बैर क्यों? उधार की शान से खुद की आन छिपाएंगे कब तक – हम लोग! हमें पक्के से जान लेना होगा कि उर्दू किसी मजहब की भाषा नहीं। यह हिंदुस्तानी है! देखिए , ऐसे मौकों को लपक कर गहरे काले रंग का व्यर्थ-विरोध दर्ज करवाने वाले खुद का सस्ता प्रचार करने में जरूर क़ामयाब हैं। पर किस कीमत पर?

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