1989 तक रूसी कठपुतलियां नचा पाए, लेकिन अमरीकी धन, छल और हथियारों की शह पा कर खड़े हुए कट्टर, खूनी कबीलों के संगठन इस्लामी धर्मांध मुजाहिदीन लड़ाकों ने उसे असहाय करना शुरू कर दिया। अमरीका का पिछलग्गू पाकिस्तान मुजाहिदीनों की पीठ पर था। पराजय के घूंट पी कर सोवियत संघ तब अफगानिस्तान से जो विदा हुआ तो फिर उसने इधर का मुंह भी नहीं किया। धीरे-धीरे कठपुतलियों ने नचाना भी सीख लिया। अब अमरीकी युवाओं की लाशें, युद्ध का लगातार बढ़ता आर्थिक बोझ और दिनोंदिन गाढ़ी होती आर्थिक मंदी – अमरीकी राष्ट्रपतियों को मजबूर करती जा रही थी कि वे अफगानिस्तान से वैसे ही निकल आएं जैसे सोवियत संघ निकला था। लेकिन चक्रव्यूह में प्रवेश से भी कहीं जटिल होता है उससे बाहर निकलना। राष्ट्रपति ओबामा को यह मौका मिला था 2011 में, जब पाकिस्तान के एटाबाबाद शहर में घुस कर अमरीकी सैनिकों ने ओसामा बिन लादेन को मार डाला था। लेकिन यह नाजुक फैसला लेने से ओबामा हिचक गए। अब बाइडन, जो अफगानिस्तान में अमरीकी फौजों की उपस्थिति के कटु आलोचक रहे हैं और वहां चल रहे युद्ध को ‘अंतहीन युद्ध’ कहते रहे हैं, कुर्सी पर बैठे हैं, तो उन्हें वह फैसला करना ही चाहिए जिसकी वे अब तक पैरवी करते रहे हैं। लेकिन राजनीति का सच यह है कि आप जो कहते हैं वह कर भी पाएं, यह न जरूरी है, न शक्य!
अफगानिस्तान से अमरीकी फौजों की वापसी का आज एक ही मतलब होगा – भयंकर खूनी गृहयुद्ध, इस्लामी अंधता में मतवाले तालिबान का आधिपत्य और पाकिस्तानी स्वार्थ का बोलबाला। यह अमरीकी कूटनीति की शर्मनाक विफलता, अमरीकी फौजी नेतृत्व के नाकारापन की घोषणा और एशियाई मामलों से सदा के लिए हाथ धो लेने की विवशता को कबूल करना होगा। इसलिए 11 सितंबर से पहले अमरीका को अपनी पूरी ताकत लगा कर अफगानिस्तान के सभी पक्षों को एक टेबल पर लाना होगा। अमरीकी व नाटो संधि के सैनिकों की उपस्थिति में ही अफगानिस्तान में एक मिली-जुली सरकार का गठन हो, यह जरूरी है। अफगानिस्तान के दूसरे सारे कबीलों को साथ लेने के काम में अमरीका को हमारी जरूरत भी पड़ेगी। हमें आगे बढ़ कर अमरीकी कूटनीति में हिस्सेदारी करनी चाहिए ताकि पाकिस्तान को खुला मैदान न मिल सके। अमरीका को अफगानिस्तान से निकलना ही चाहिए, लेकिन भागना नहीं चाहिए।
(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान, दिल्ली के अध्यक्ष हैं)