1889 में अमरीका और मैक्सिको, दोनों देशों की सरकारों ने सीमाई मुद्दे निपटाने के लिए अंतरराष्ट्रीय सीमा और जल आयोग का गठन किया था। इसके बाद 75 वर्षों तक आयोग ने 247 से अधिक बार नदियों की धारा बदलने के बारे में अपना फैसला दिया और दोनों देश सीमाएं फिर से तय करने को मजबूर हुए। 1924 में एक अमरीकी कानून के तहत नदियां पार करना जब मुश्किल हो गया तो मैक्सिको से आने वाले प्रवासियों के खिलाफ अमरीकी नस्लवाद की घटनाएं बढ़ीं। ऐसे मूल निवासियों, जिनके पूवर्जों के घर नई सीमा के जरिए दो भागों में बंट गए थे, को सीमा प्रवर्तन ने अपनी ही जमीन पर प्रवासी बना दिया था।
1970 की संधि के तहत सैद्धांतिक रूप से नदियों के कारण होने वाले सभी सीमा विवादों को सुलझा लिया गया, लेकिन वास्तव में नदियों की रेत के कारण सीमा विवाद अभी बना हुआ है और पर्यावरणीय बदलावों के चलते यह अतिसंवेदनशील भी है।
संक्षेप में, यही कहा जा सकता है कि असल में सीमाएं कभी भी तय नहीं की जा सकतीं। सीमा को अनंतिम और तरल रूप में देखने से ‘हम’ और ‘वो’ के बीच अंतर को कम करने में मदद मिल सकती है। आज दीवार अधूरी और संवेग रहित हो सकती है, जो ट्रंप युग का एक अधूरा अवशेष है। लेकिन इसका भूत अभी भी सरहदों पर मंडराता रहता है।
द वाशिंगटन पोस्ट
(प्रव्रजन व मानविकी में एंड्रयू डब्ल्यू. मेलन पोस्ट-डॉक्टरल फेलो, महिंद्रा ह्यूमैनिटीज सेंटर, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी )