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ओपिनियन

अमरीकी सामरिक सहयोग वक्त की दरकार

चीन को जवाब देने के लिए मजबूत सहयोगी की जरूरत है और ऐसे में भारत के सामने अमेरिका एक बेहतर विकल्प हो सकता है।

नई दिल्लीJun 29, 2020 / 01:35 pm

shailendra tiwari

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डॉ.ब्रह्मदीप अलूने, राजनीतिक विश्लेषक

निर्णायक अंत से बचते हुए युद्ध को लंबा खींचने की कला साम्यवादी चीन की विस्तारवादी नीति का पहला चरण माना जाता है। माओ का मानना था कि प्रजातांत्रिक व्यवस्था वाली सरकारें दीर्घकाल तक चलने वाले अनिर्णयात्मक संघर्ष को राजनीतिक,आर्थिक और मनोवैज्ञानिक कारणों से अधिक समय जारी नहीं रख सकती है।

चीन की भारत को लेकर शुरू ही यहीं नीति रही है और भारत चीन की परंपरागत नीति में बिना किसी विशेष प्रतिकार के फंसता चला गया। चीन ने भारत पर सामरिक बढ़त बनाए रखने के लिए निर्णायक युद्द न करके समय समय पर कुछ जगहों पर हिंसक सैन्य संघर्ष पर विश्वास किया। वह जानबूझ कर सीमा विवाद हल नहीं करना चाहता है और सीमा विवाद को समय-समय पर भारत पर दबाव बनाने के लिए उपयोग करता है।

साम्यवादी नीतियाँ आक्रामक और तानाशाही पूर्ण होती है वहीं लोकतंत्र मर्यादाओं और सीमाओं में बंधा होता है। माओ के अनियत्रित चीन के लिए भारत के आदर्श लोकतंत्र का कोई सम्मान नहीं है और इसी का फायदा चीन ने लगातार उठाया है।
भारत की अधिकांश लोकतांत्रिक सरकारों ने चीन से सीमा विवाद को लेकर सख्ती और सक्रियता नहीं दिखाई, वहीं चीन ने सामरिक बढ़त लेते हुए प्रतिद्वंद्वी देश को आर्थिक बाहुपाश में जकड़ लिया। सितम्‍बर 2014 में अहमदाबाद में भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग गांधी की यादों को साझा कर रहे थे और दूसरी ओर जम्मू कश्मीर के चुमार इलाके में घुसकर चीनी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के जवान भारत की अखण्डता को चुनौती देने का दुस्साहस कर रहे थे।

भारत के प्रति चीन की नीति में विस्तारवादी अहंकार का नजरिया शामिल रहा है। 60 के दशक में पहली बार तिब्बत को लेकर भारत और चीन आमने-सामने हुए। 19 अप्रैल 1960 को चीन के प्रधानमंत्री चाऊ-एन लाइ और विदेश मंत्री मार्शल चेन यी प्रधानमंत्री नेहरू से बात करने के लिए दिल्ली पहुंचे। उस समय इस बैठक में तत्कालीन उप राष्ट्रपति राधाकृष्णन् भी थे। बेहद शालीन लेकिन सख्त लहेजे में उन्होंने चीनी प्रतिनिधिमंडल से कहा- 40 करोड़ भारतीयों की दोस्ती की तुलना में कुछ हजार वर्गमील के इलाके की क्या अहमियत है ? इस पर मार्शल चेन यी ने पलटवार किया – 60 करोड़ चीनियों की दोस्ती की तुलना में कुछ सौ मील इलाके की क्या अहमियत है? वास्तव में इस बहस से दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी वाले दो राष्ट्रों की दुश्मनी की शुरूआत देखी जा सकती थी। इस बैठक में जब तत्कालीन वित्त मंत्री लेकिन दक्षिण पंथी नेता मोरारजी देसाई भी शामिल हो गये तो गुस्साएं चाऊ-एन लाइ ने देसाई से मुखातिब होते कहा, “आप बहुत कह चुके हैं”मोरारजी ने उसी लहजे में जवाब दिया, “आप बहुत से ज्यादा कह चुके हैं।” नेहरू की शान्तिप्रिय विदेश नीति में भारतीय नेताओं के यह सख्त अंदाज चीनियों के लिए खतरनाक मंसूबे के संकेत थे और वास्तव में चीन से निपटने के लिए आक्रामक अंदाज की जरूरत भी थी। फिलिपीन्स के पूर्व राष्ट्रपति बेनिग्रो एक्किनो ने एक बार कहा था यदि चीन आपको दबाता है और यदि आप झूके तो और अधिक दबाएगा। स्पष्ट है चीन को जवाब देने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और आक्रामक कूटनीति चाहिए।

चीन की नीतियों में पारम्परिक रूप से मिडिल किंगडम की भावना विद्यमान रही है। प्राचीन समय में चीन निवासी अपने आप को विश्व के केन्द्र के रूप में होने का दावा करते थे इसके तीन मौलिक तत्व अब भी चीन की विदेश नीति में पाये जाते हैं। पहला चीन को संयुक्त राष्ट्र संघ की सहायता की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि चीन को कोई देश न मानकर विश्व ही माना जाए। दूसरा चीन बहुत उदार है और जो उसकी नीतियों के अंतर्गत चलता है उस पर चीन कृपा रखता है और तीसरा तत्व यह है कि चीन कभी भी बाहरी प्रभाव से प्रभावित नहीं होता है। प्राचीन काल से चली आ रही इस परम्परा को चीन ने जीवित रखा है। वह अंतर्राष्‍ट्रीय न्‍यायालय के फैसलों को दरकिनार कर देता है तो उत्तर कोरिया पर संयुक्तराष्ट्र के प्रतिबन्ध के बाद भी उसे परमाणु हथियार और अन्य साजोसामान देने से कोई गुरेज नहीं। वह कई देशों के आतंकी संगठनों को हथियार बेचता है,उत्तर कोरिया को हथियारों की तस्करी में मदद करता है। संयुक्तराष्ट्र में पाकिस्तान के आतंकियों का बचाव करता है। दक्षिण चीन सागर से लगे कई देशों की भूमि और समुद्र पर अपना अतिक्रमण करता है।

चीन अरूणाचल प्रदेश पर दावा करते हुए वाले इस क्षेत्र को दक्षिणी तिब्बत कहता है। लद्दाख,अरूणाचल प्रदेश और सिक्किम उसकी घुसपैठ के प्रमुख इलाके है। वह वास्तविक नियन्त्रण रेखा को नजरअंदाज करता है। अब गलवान जैसी सामरिक रूप से मजबूत घाटी पर उसकी नजर है और यदि चीन को इस समय दबाया नहीं गया तो वह भारत पर मजबूती से हावी होगा,जिसके बेहद घातक परिणाम हो सकते है। चीन को जवाब देने के लिए मजबूत सहयोगी की जरूरत है और ऐसे में भारत के सामने अमेरिका एक बेहतर विकल्प हो सकता है। इस समय रूस की आर्थिक हालात उसे चीन से उलझने की इजाजत नहीं देते,अत: भारत को चीन से संघर्ष की स्थिति में रूस से कोई मदद मिले इसकी संभावना कम है। जाहिर है राष्ट्रीय हित में बड़े कदम उठाते हुए चीन पर दबाव डालने के लिए भारत को अमेरिका की सामरिक और आर्थिक मदद लेने से गुरेज नहीं होना चाहिए। अमेरिका ने चीन के खिलाफ भारत से सहयोग बढ़ाने के संकेत भी दिए है,यह निर्णायक कदम हो सकता है।

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