धर्मपाल के अनुसार, 1731 में बंगाल में रॉबर्ट काउल्ट नामक ब्रितानी नागरिक रहते थे। इन्होंने इंग्लैंड में रहने वाले डॉ. ओलिवर काउल्ट को पत्र से जानकारी दी कि यहां चेचक (चिकन पॉक्स) जैसी बीमारी का इलाज टीका लगाकर किया जाता है। डॉ. ओलिवर ब्रिटेन से भारत आने वाले जहाजों में लोगों को चिकित्सा सेवाएं देने के लिए 1709 में शिप सर्जन के रूप में नियुक्त कर दिए गए थे। उन्होंने रोजनामचे में लिखा है कि भारत में रोगियों को टीका लगाने का चलन था। बंगाल के वैद्य एक बड़ी पैनी व नुकीली सुई से चेचक के घाव की पीब लेकर उसे टीके की जरूरत पडऩे वाले रोगी के शरीर में कई बार चुभोते थे। इस उपचार को संपन्न करने के बाद वे उबले चावल की लेई बनाकर रोगी के घाव पर चिपका देते थे। इसके तीसरे या चौथे दिन रोगी को बुखार आता था। अतएव वे रोगी को यथासंभव ठंडी जगह रखते थे और ठंडे पानी से नहलाते भी थे, जिससे शरीर का तापमान नियंत्रित रहे।
डॉ. ओलिवर ने लिखा है कि यह काम ज्यादातर उडिय़ा भाषी ब्राह्मण करते थे। प्रत्येक वर्ष के निश्चित महीनों में वे इस कार्य को अपना उत्तरदायित्व मानते हुए घर-घर जाकर करते थे और रोगी ढूंढते थे। ओलिवर लिखते हैं कि इस चिकित्सा प्रणाली का अध्ययन व अनुभव करने के बाद इस विधि की गुणवत्ता व श्रेष्ठता का प्रशंसक हो गया। भारत से यह पद्धति कालांतर में ब्रिटेन पहुंची और 1976 में अंग्रेज चिकित्सक डॉ. एडवर्ड जेनर ने खसरे के टीका का आविष्कार शायद इसी पद्धति से किया।