यह अलग बात है कि उसे इन सपनों को सजाए रखने के लिए उपलब्ध विकल्पों पर ही संतोष करना होता है। उत्तरप्रदेश में जिस तरह भारतीय जनता पार्टी को प्रचण्ड बहुमत मिला, उसकी कल्पना तो विजयी पार्टी के रणनीतिकारों ने भी नहीं की होगी।
वैसे ही जैसे दिल्ली में प्रचण्ड बहुमत के साथ सत्तारूढ़ हुई आम आदमी पार्टी के रणनीतिकारों ने यह कल्पना नहीं की होगी कि गोवा में लंबी तैयारियों के साथ चुनाव में उतरने के बावजूद मतदाता उन्हें किसी भी एक सीट पर विजय का वरण नहीं करने देंगे।
आम आदमी पार्टी तो राजनीति में बहुत पुरानी नहीं है, लेकिन समाजवादी पार्टी, बहुजनसमाज पार्टी, शिरोमणि अकाली दल, नगा पीपुल्स फ्रंट, महाराष्टवादी गोमांतक पार्टी से लेकर मणिपुर की पीपुल्स रिसर्जेन्स एण्ड जस्टिस अलायंस तक जैसी पार्टियों की जो हालत हुई है, उससे क्या यह अनुमान लगाया जाए कि देश के आम मतदाता का मन क्षेत्रीय राजनीति से ऊबने लगा है?
लेकिन इस बारे में किसी भी निष्कर्ष तक पहुंचने के पहले यह तथ्य भी ध्यान में रखना होगा कि पंजाब में जीत का सेहरा भले ही कांग्रेस के सिर बंधा है लेकिन विपक्षी दल के रूप में मान्यता पाने लायक सीटें उस पार्टी को मिली है जिसका राजनीतिक प्रभुत्व इसके पहले केवल राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र तक ही सीमित रहा है।
बेशक आज जिस भारतीय जनता पार्टी का तुमुलनाद सर्वत्र सुनाई दे रहा है, किसी जमाने में वह भी केवल दो लोकसभा सीटों के संकुचन तक सिमट कर रह गई थी। लेकिन गिर गिर कर उठने का नाम ही जीवन है। क्या हार से सकते में आए कई क्षेत्रीय राजनीतिक दल नवसंजीवनी पा सकेंगे?
यदि इन चुनावों में छुपे निहितार्थ ही टटोले जाने हों तो यह ध्यान रखना होगा कि मतदाता ने अपने अपने सूबों के सियासती निजाम के खिलाफ रोष प्रगट किया है। अखिलेश यादव तो अपनी सीट बचा ले गए लेकिन उत्तराखण्ड और गोवा के मुख्यमंत्री तो खुद चुनाव हार गए।
ऐसे में यदि मतदाता का यह ‘एंटी एस्टेब्लिशमेंट’ रूख मान लिया जाए तो क्या गुजरात, नागालैण्ड, मेघालय, हिमाचल, त्रिपुरा की सरकारों को सतर्क हो जाना चाहिये जहाँ इसी साल के अंत में चुनाव होने हैं?