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दावों का सच

कानून से खिलवाड़ करने वालों की राजनेताओं से सांठगांठ नई बात नहीं रह गई है। ज्यादा कारगर यह देखना होगा कि ये एक-दूसरे की मदद कैसे करते हैं?

Sep 14, 2018 / 01:49 pm

सुनील शर्मा

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बदनाम शराब कारोबारी विजय माल्या के इस दावे में कि देश छोडऩे से पहले ‘सेटलमेंट’ के लिए वह वित्तमंत्री से मिला था, कोई ऐसी बात नहीं है जिसे लेकर इतना बवाल मचाया जाए। न ही वित्तमंत्री अरुण जेटली की सफाई में वैसी पवित्रता है कि माल्या को भगाने के आरोपों से सरकार को मुक्त कर दिया जाए। दोनों की बातों से ही यह स्पष्ट है कि मुलाकात हुई थी जो औपचारिक नहीं थी।
हवाला और प्रत्यर्पण मामलों की सुनवाई के दौरान लंदन में वेस्टमिंस्टर अदालत के बाहर पत्रकारों के सामने जब माल्या ने ऐसा कहा तो उसे निश्चित ही मालूम रहा होगा कि एक ‘राजनीतिक बम’ फोड़ रहा है। तुरंत ही इसका असर हुआ और माल्या की सफाई सामने आ गई। जेटली ने भी सीधे-सीधे इनकार करने की बजाय माल्या के दावे को ‘तथ्यात्मक रूप’ से गलत बताया। मुलाकात के लिए वक्त न देना एक ऐसा तथ्य है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। क्या ऐसे ‘सेटलमेंट’ औपचारिक अनुमति लेकर किए जाते हैं? संसद के गलियारे में इस अनौपचारिक मुलाकात में क्या बात हुई, इसे दोनों के अलावा और कौन जान सकता है? इसलिए ऐसी बातों का बतंगड़ चाहे जितना बन जाए, हासिल कुछ नहीं होने वाला।
कानून से खिलवाड़ करने वालों की राजनेताओं से सांठगांठ अब कोई कौतूहल पैदा करने वाली बात नहीं रह गई है। इसलिए दोनों बिरादरियों की भेंट-मुलाकातों और नजदीकियों पर हाय-तौबा मचाने से ज्यादा कारगर यह देखना होगा कि ये एक-दूसरे की मदद कैसे करते हैं? भाजपा के ही राज्यसभा सदस्य सुब्रमण्यम स्वामी का कहना मायने रखता है कि वर्ष 2015 में माल्या के खिलाफ लुकआउट नोटिस को हल्का करते हुए ‘ब्लॉक’ से ‘रिपोर्ट’ कर दिया गया। इसके कारण ही वह देश से भागने में सफल हुआ।
इस बात की जांच की जानी चाहिए कि आखिर डिफाल्टर माल्या के मामले में ऐसा बदलाव किन तथ्यों के आधार पर और किसके निर्देश या अनुमति से हुआ? इसी तरह पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार (2010) में भी नियमों को आसान बनाकर इस डिफाल्टर कारोबारी को कर्ज उपलब्ध कराने का रास्ता आखिर किसकी अनुमति से बनाया गया? कर्ज भुगतान के संकट से जूझ रहे बैंकों ने माल्या की कंपनी किंगफिशर के कर्ज वर्गीकरण को ‘खराब’ से बदलकर ‘दबाव’ वाली करने की अपील रिजर्व बैंक से क्यों की थी?
यह संयोग है कि माल्या का विवादित दावा उसी दिन सामने आया जब सुप्रीम कोर्ट ने दागी सांसदों-विधायकों के मामलों की त्वरित सुनवाई के लिए विशेष अदालतों का गठन नहीं करने पर 18 राज्यों में हाईकोर्ट व मुख्य सचिव से जवाब मांगा। शीर्ष अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि वह पूरे मामले की निगरानी कर रही है कि कैसे एक साल के भीतर ही इनका निबटारा हो जाए। कानून को ठेंगा दिखाने वाले जब संसद और विधानसभाओं में पहुंचते हैं तो पहुंच का बेजा इस्तेमाल करने से बाज नहीं आते। संसद भवन में जेटली-माल्या की अनौपचारिक मुलाकात और ‘सेटलमेंट’ की कथित पेशकश राजनीतिक पहुंच का लाभ उठाने की कोशिश का सबूत है। उम्मीद कर सकते हैं कि अदालत की गंभीरता जरूर रंग लाएगी।

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