पूरे वैश्विक समाज में हिंसा क्यों व्याप्त है और यह कहां से अपनी वैधता प्राप्त करती है, एक ज्ञानमीमांसीय प्रश्न भी है। क्या मनुष्य जन्मजात बर्बर व हिंसक है अथवा यह हमारी सभ्यताओं के विकास की यात्रा की कोई चूक है। क्या हिंसा पुरुष और पौरुषवादी विचार का प्रति उत्पाद है? तमाम विभाजन चाहे वह प्राकृतिक हो, जैसे लैंगिक अथवा मनुष्य निर्मित धर्म, जाति, रंग, नस्ल, वर्ण, भाषा, देश इत्यादि। यह सब अस्तित्व के सरोकारों से प्रारंभ होकर इनकी श्रेष्ठता और प्रतियोगिता पर समाप्त होते हैं। प्राय: यह प्रतियोगी भाव और तुलनात्मक श्रेष्ठता स्थापित करने के प्रयास हिंसक स्वरूप धारण कर लेते हैं। हम बतौर समाज अक्सर नायक-खलनायक, कौरव-पांडव, धर्म-अधर्म, नीति-अनीति में हिंसा को बांटकर कोई एक पक्ष चुन लेते हैं और मरने-मारने को उतारू रहते हैं। इसी परंपरा का निर्वहन नए तरह के वाणिज्य को जन्म देता है। ताजा आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2019 में ही दुनिया भर में तमाम हथियारों का व्यापारिक मूल्य 11,800 करोड़ डॉलर है। यह इसलिए आश्चर्यजनक नहीं है कि यह रकम इतनी बड़ी है बल्कि बहुत सारी भाषाओं में इसका अनुवाद ही संभव नहीं है। इस पूरे व्यापार में अमरीकी कंपनियों ने छत्तीस प्रतिशत के साथ वर्चस्व बनाया है। अमरीका दुनिया का सबसे बड़ा हथियार निर्यातक है और सऊदी अरब ने अमरीकी हथियारों के निर्यात के 22 प्रतिशत की खरीदारी की। दुनिया के पांच बड़े देश, जो संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद के भी सदस्य हैं, ने 75 प्रतिशत हथियार निर्यात किए और सऊदी अरब, भारत, मिस्र, ऑस्ट्रेलिया और अल्जीरिया ने क्रमश: आयात किए। छोटे एवं हल्के हथियारों की संख्या दुनिया भर में सौ करोड़ से अधिक है, अमरीका में प्रत्येक सौ लोगों पर 21 अस्त्र हैं, इनकी संख्या में शायद ही हम खंजर, ब्लेड, लाठी, तलवार जैसे हथियारों को गिनते हों।
हथियारों के उत्पादन, निर्यात-आयात को लेकर विश्व समाज में सैकड़ों समझौते और संधि पत्र हस्ताक्षर हुए पर यह हिंसा जो कथित रूप से वैध और युद्ध जनित है, वस्तुत: अवैध हिंसा और भस्मासुरों को ही उत्पन्न करेगी। यह कल्पना से परे है कि दुनिया के किसी द्वीप पर मानव आबादी हो और संघर्ष न हो। शस्त्र उद्योग केवल हथियार ही उत्पादित नहीं करता बल्कि उनके प्रयोग के लिए संभावनाओं और नए विवादों को भी जन्म देता है। जिस दुनिया के देश अपने सकल घरेलू उत्पाद का औसतन साढ़े चार प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करते हैं और रक्षा मद में बारह प्रतिशत खर्च करते हैं, उस दुनिया में स्कूल और अध्यापक की भूमिका को अजीबोगरीब चुनौती मिलना असामान्य नहीं है। ऐसे में शिक्षा के सहारे शांति की उम्मीद करना व्यर्थ है। वास्तव में हम शांति चाहते ही नहीं, हम शोषण का अंत भी नहीं करना चाहते, हम नहीं चाहते कि हमारी लोलुपता में कोई बाधा पड़े या वर्तमान सामाजिक ढांचे के आधारों में परिवर्तन किया जाए, हम चाहते हैं कि वस्तुएं जैसी हैं वैसी ही, केवल सतही परिवर्तन के साथ बनी रहें और इस कारण शक्तिशाली और धूर्त व्यक्ति निश्चय ही हमारे जीवन पर शासन करते रहते हैं। ऐसे भी जिस समाज में हिंसा वीरता और बहादुरी का पौरुष पर्याय बन चुकी हो, उस समाज को अहिंसा की बात करने के लिए गांधी जैसी जीवटता और साहस की आवश्यकता होती है।