वोट की राजनीति से कमजोर हो रही है जनता की ताकत
Published: Feb 23, 2023 07:57:50 pm
लोकतांत्रिक व्यवस्था मनमानी से नहीं, सामूहिक विवेक और सहभागिता से ही चल सकती है। लोकतंत्र में लगातार विवेकशीलता, आपसी सहयोग बढऩे की बजाय मनमानी और मनचाही कार्यप्रणाली का वर्चस्व बढ़ता ही जा रहा है।


वोट की राजनीति से कमजोर हो रही है जनता की ताकत
अनिल त्रिवेदी
गांधीवादी चिंतक और अभिभाषक राजनीति का अर्थ किसी भी तरह से वोट का जुगाड़ करना हो गया है। भारत में आप सार्वजनिक रूप से कोई भी सवाल उठाओ, तो उस पर बहस करने की बजाय, इसमें क्या राजनीति है, लोग ऐसा सोचने लगते हैं। दूसरा काम यह हुआ है कि समूची राजनीति दिन-रात वोटों के गुणा-भाग में ही अपनी ऊर्जा खपा रही है। एक अरब चालीस करोड़ की आबादी वाले देश को शांतचित्त और प्रेमपूर्वक कैसे चलाया जाए, इसका ध्यान ही नहीं है। इतनी बड़ी आबादी का देश सरकार बनाने और गिराने को ही राजनीतिक जीवन का मूल मंत्र मानने लगा है। आजादी के बाद से धीरे-धीरे हमारी राजनीतिक हलचल केवल वोट हासिल करने के एक मात्र व्यक्तिगत और सामूहिक उपक्रम में बदल गई है। सत्ता हासिल कर क्या करेंगे और कैसे करेंगे, यह विचार-विमश और व्यवहार का विषय ही नहीं बन पाया है। लोकतंत्र में नागरिक चेतना नदारद हो रही है और यह एक अजीब सी उदासीनता में बदल रही है। समूची राजनीति का एक सूत्री कार्यक्रम है, कैसे चुनाव जीता जाए और सत्ता हासिल की जाए? इसी से हमारे देश की समूची राजनीति नागरिक ऊर्जा विहीन हो गई है।
आजादी के ७५ साल बाद भी 'सबको इज्जत और सबको काम देने' की दिशा में देश की राजनीति प्रभावी सकारात्मक कदम नहीं उठा पाई। लोकतांत्रिक ढंग से सत्ता हासिल करके भी देश की विशाल लोक ऊर्जा निस्तेज क्यों है, यह मूल सवाल है। भारतीय समाज में यह भाव मजबूत क्यों नहीं हुआ कि 'भारत सबका और सब भारत के।' भारत के संविधान में पूरी संवैधानिक स्पष्टता के बावजूद धर्म, जाति, लिंग, स्थान, और नस्ल के आधार पर भेदभावपूर्ण व्यवहार करके प्राय: सभी राजनीतक ताकतें आजादी की लड़ाई की मूल भावना को ही ठेस पहुंचाने को अपनी राजनीति का मुख्य हिस्सा बनाकर, भारत के संविधान और आजादी आंदोलन की मुख्यधारा को ही संकुचित कर रही हैं। भारत की असली ताकत भारत के लोग हैं और भारत के किसी भी नागरिक को अपमानित और अवांछित धोषित करने का अधिकार संविधान किसी भी निर्वाचित या अनिर्वाचित राजनीतिक या अराजनीतिक ताकत को सीधे या परोक्ष रूप से नहीं देता है। यही संविधान और आजादी आन्दोलन की मूल भावना या नागरिकों की सार्वभौमिक ताकत है। लोकतांत्रिक व्यवस्था मनमानी से नहीं, सामूहिक विवेक और सहभागिता से ही चल सकती है। लोकतंत्र में लगातार विवेकशीलता, आपसी सहयोग बढऩे की बजाय मनमानी और मनचाही कार्यप्रणाली का वर्चस्व बढ़ता ही जा रहा है।
आजादी आंदोलन का मूल विचार भारतीय समाज और नागरिकों की ताकत और दैनंदिन जीवन की चुनौतियों को मिलजुल कर हल करने की लोक व्यवस्था को खड़ा करना था। अपने राजनीतिक वर्चस्व को कायम रखना ही लोकतांत्रिक समझदारी नहीं है। राजनीति वोटों का जुगाड करना मात्र नहीं है। भारत में लोगों को ताकतवर बनाने की राजनीति की बजाय अपने एकाकी राजनीतक वर्चस्व को कायम करने की संकुचित राजनीति ताकतवर हो गई है। भारत का नागरिक ताकतवर संविधान के होते हुए भी निरन्तर असहाय और कमजोर हो गया है। भारत में लगभग सारी राजनीतिक जमातें किसी भी तरह खुद को ताकतवर बनाने में जुटी हैं। इस परिदृश्य को समूचे देश में पूरी तरह बदल कर भारत के लोगों को ताकतवर बनाने की राजनीति का उदय करना बड़ी चुनौती है। बिना वोट की राजनीतिक चेतना उभरने पर ही हम भारतीय समाज और नागरिकों को निरन्तर आगे बढ़ाने वाली लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत कर सकते हैं। लोकाभिमुख राजनीति और अर्थव्यवस्था को खड़ा करना ही आजादी आंदोलन की मूल भावना है। भारतीय लोकतंत्र में लोकाभिमुख विचारधारा को राजकाज में प्रतिष्ठित करने की दिशा में लोक समाज को गोलबंद करने का वैचारिक आन्दोलन चलाया जाए, तो ही हम सब हिलमिल कर आजादी आंदोलन की मूल भावना को साकार कर सकते हैं।