scriptलो कर दिखाया | Voters and their decision to change govt | Patrika News

लो कर दिखाया

locationजयपुरPublished: Dec 12, 2018 12:50:18 pm

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Gulab Kothari

वसुंधरा सरकार अपार बहुमत को जनता का प्रसाद मानने के बजाए अपने राजसी अहंकार में आ गई। प्रदेश में काला कानून लाकर लोकतंत्र को समेट देने का प्रयास किया। लेकिन पत्रिका की मुहिम और जन आक्रोश का सामना नहीं कर पाई।

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टूटा मौन और जनता ने कर दिखाया जो तय कर लिया था दो साल पहले। पत्रिका ने दिनांक २२ अक्टूबर २०१७ को लिखा था कि अगले चुनावों में जनता सरकार को उखाड़ फेंकेगी। जनता ने अपना काम कर दिया। अब कांग्रेस उसका पूरा लाभ नहीं उठा पाई तो कारण भी वही ढूंढे। कहा जाता है कि भिश्ती को एक दिन का बादशाह बना दिया तो उसने चमड़े के सिक्के चला दिए। वसुंधरा सरकार अपार बहुमत को जनता का प्रसाद मानने के बजाए अपने राजसी अहंकार में आ गई। प्रदेश में काला कानून लाकर लोकतंत्र को समेट देने का प्रयास किया। लेकिन पत्रिका की मुहिम और जन आक्रोश का सामना नहीं कर पाई। प्रस्ताव वापिस लेना पड़ा। इसी की नकल की मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार ने। बाद में उनको भी पीछे हटना पड़ा। इसके बाद भी केन्द्र सरकार ने ऐसा ही कानून बना डाला। इस मानसिकता के प्रति जनता ने मानस बनाकर मौन धारण किया था। अर्थ स्पष्ट ही था। जरूरत चश्मा उतारकर देखने की थी। हमारे चश्मा था ही नहीं। तीनों प्रदेशों में घर-घर जाकर जन-मन को टटोला, नेताओं से चर्चा की, पिछले चुनावों पर दृष्टि डाली, पिछले वर्षों में सरकारों की मंशा क्या रही, इसको भांपने का प्रयास किया और उसी के आधार पर चर्चा को आगे बढ़ाते गए। मतदाता को देवता मानकर अन्तस से बात की। तब उसके भीतर चल रही लहर को महसूस कर पाए। छत्तीसगढ़ के दौरे में ही लहर ने स्थिति स्पष्ट कर दी थी। बस्तर के आदिवासी ज्यादा मुखर थे। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ आज भी एक-दूसरे से प्रभावित रहते हैं। किसान और सवर्ण मध्यप्रदेश में भी उसी तर्ज पर थे। किसान तीनों ही राज्यों में अफसरों को कोस रहे थे जिनके कारण प्रत्येक योजना दुर्गति का कारण बनती चली गई। इसमें बीमा का मुद्दा भी पर्दे के पीछे दरिन्दगी का कारण रहा। हर व्यक्ति अच्छी सरकार चाहता है। फिर अच्छा कार्य करके सरकारें पुन: प्रतिष्ठित नहीं होना चाहती, यह एक यक्ष प्रश्न हल नहीं पा सका।
जो वातावरण मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में पन्द्रह वर्षों में बना, वह राजस्थान में पांच वर्षों में ही बन गया। क्या यही सारी कमाई की पांच वर्षों में! इससे पूर्व कांग्रेस सरकार को भी इसी प्रकार से जनता ठुकरा चुकी थी। किसी को ठेस नहीं लगती, अपमान महसूस ही नहीं होता। मानो आत्मा होती ही नहीं, नेताओं के। कांग्रेस के पहले भी यही तो वसुन्धरा सरकार थी। क्यों हारी थी, वे कारण किसने समझे और किसने उनका निराकरण किया? जनता वहीं की वहीं ठगी सी खड़ी जुमलों की बारिश में नहा रही है।
छत्तीसगढ़ आदिवासियों की जमीनें हड़पने (कानून बनाकर) के लिए और सलवा जुडुम जैसे असंवैधानिक अभियानों के लिए जाना जाएगा। कोल ब्लॉक्स आवंटन का खेल भी रमन सिंह के काल में हुआ था। उधर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री अपनी वाक्-चतुराई के लिए जाने जाते हैं। किन्तु उनकी कथनी और करनी विरोधाभासी रही है। अपराध और भाजपा के अपराधी दोनों ही इस काल में खूब फले-फूले हैं। किसानों पर तो मानो स्वयं सभी सरकारें ही टूट पड़ीं। युवा बेरोजगार है और छोटा व्यापारी घुटन महसूस कर रहा है।
विशेष बात यह रही कि चुनाव में जनता और भाजपा सीधे आमने-सामने रहे। ७० वर्षों में पहली बार ऐसी स्थिति बनी है। कांग्रेस विजयी नहीं हुई, भाजपा हारी है। कांग्रेस को जीतने के लिए अभी पांच साल कुछ करके अपनी दक्षता और निष्ठा प्रमाणित करनी पड़ेगी। मुद्दा तो यह भी है कि क्या देश सदा के लिए इन दो धर्मों-कांग्रेस और भाजपा-में बंटकर रह जाएगा? क्या सत्ता से उतरा हुआ दल विपक्ष की भूमिका भी निभाएगा अथवा सत्ताधारी को सामन्ती छूट बनाए रखेगा। इसके कई प्रमाण मिलते रहते हैं कि दोनों दल भीतर कुछ समझौता करके भी चलते हैं। चहेतों को जिताने के लिए सामने वाले दल के कमजोर व्यक्ति को टिकट दिलवाने में सफल हो जाते हैं। इस बार के चुनावों में भी ऐसा जगह-जगह हुआ है। कीमत जनता चुकाती है। युवा पीढ़ी को इस दृष्टि से जागरूक रहने की आवश्यकता है।
क्या इसी परिणाम और नागरिक सम्मान के लिए हमारे पूर्वजों ने लोकतंत्र की स्थापना की थी? आज आगे बढऩे से पहले इस प्रश्न पर सामाजिक बहस होनी चाहिए कि क्या सरकार बदल देना मात्र ही लोकतंत्र है। क्या पद से उतार देना ही जनप्रतिनिधि की ‘अपने अनकिए’ की और ‘विरुद्ध किए’ की सजा है? कैसे कोई सत्ता-पक्ष जनता की अस्मत से खेलकर बरी हो सकता है?
इन चुनावों ने युवा पीढ़ी को जगाया है। एक नए युग की शुरूआत हुई है। युवा सक्षम है, राष्ट्रनिष्ठ है, भविष्य दृष्टा है, ऊर्जावान है। रूढि़वाद के बंधन टूटने शुरू हो गए हैं। लोकतंत्र के तीनों पायों के लिए चुनौती तैयार हो रही है। ‘देश को भविष्य दो, देश को स्वतंत्रता और सम्मान दो।’ यही नया नारा रहेगा। विकास की परिभाषा युवा तय करेगा, सरकारें नहीं। भावी सरकारें भी ऐसी होनी चाहिए जो देश की २५-५० वर्ष आगे की सोच सकें।
चुनावी दौरे में तीनों राज्यों में जाने का मौका मिला। हर वर्ग के लोगों से चर्चा करने का अवसर भी प्राप्त हुआ। शहरी से अधिक गांवों पर अधिक केन्द्रित रहे। औपचारिक बातचीत में औपचारिक शिकायतें, नाराजगियां ही चर्चा में आईं। इनका अर्थ लगाने से कोई निष्कर्ष नहीं निकल सकता। यहां तक कि पार्टी नेताओं की जानकारियां भी खरी नहीं उतरीं। परिणाम हमारे आकलन के अनुरूप ही आए।
इस बार के चुनाव पहले से भिन्न थे। युवा के हाथ में कमान थी। जाति-धर्म से ऊपर थे। महिलाएं युवा के साथ बहुत आगे थीं। चुनाव सारी गणनाओं के बाहर जाने वाले स्पष्ट दिखाई पड़ रहे थे। वही हमने लिखा और वैसा ही हुआ भी।
यह चुनाव परिणाम २०१९ के आम चुनावों को भी निश्चित रूप से प्रभावित करेगा। सरकारों को बदलकर युवा नए जोश में होगा। किसान भी अपनी ताकत आजमाएंगे। कांग्रेस सहित सम्पूर्ण विपक्ष एकजुट और आक्रामक होगा। तीन राज्यों में नई सरकारों का भी उन्हें लाभ मिलेगा। भले समय कम है लेकिन भाजपा की केन्द्र सरकार के पास मौका है, कुछ सुधारात्मक कदम उठाने का। उसे कुछ भी करने की, अपनी एकतरफा कार्यप्रणाली बदलनी होगी। उसकी नीति और निर्णयों के जो कांटे जनता को चुभ रहे हैं, वे निकालने होंगे।

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