जो कुछ हो रहा है उसे अनजाने में हो रहा भर नहीं माना जा सकता। जो कुछ बोला जा रहा है, बाकायदा सोच-समझकर। संविधान की शपथ लेकर उच्च पदों पर बैठे नेताओं को न तो चुनाव आयोग की आचार संहिता की फिक्र है और न उन आदर्शों की, जिनके नाम पर वे साफ राजनीति की बात करते नहीं थकते। ऐसा नहीं कि चुनाव प्रचार के दौरान पहले नोक-झोंक नहीं होती थी।
गंभीर आरोप-प्रत्यारोप लगते थे लेकिन कामकाज के तरीकों को लेकर। आज की तरह व्यक्तिगत हमले नहीं होते थे। चुनाव में आज न तो भ्रष्टाचार मुद्दा बन पाया है और न नोटबंदी। विकास, सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य पर भी राजनीतिक दल बात करने को तैयार नहीं।
बात हो रही है तो सिर्फ जातिवाद की। जातियों की गोलबंदी करके चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिश में हर दल लगा है। आश्चर्य की बात है कि प्रधानमंत्री जहां श्मशान और कब्रिस्तान में होने वाले खर्च में भेदभाव की बात को तूल दे रहे हैं, वहीं प्रदेश के मुख्यमंत्री गुजरात के गधों का मुद्दा उछाल रहे हैं।
यूपी के चुनाव में गुजरात के गधों का क्या लेना-देना, लेकिन प्रधानमंत्री गुजरात से आते हैं तो चर्चा गुजराती गधों पर ही हो रही है। प्रधानमंत्री की तुलना आतंककारी से करने में भी संकोच नहीं किया जा रहा। कोई राजनीतिक दल अथवा नेता इस जंग को रोकने की कोशिश करता नहीं दिख रहा।
हर कोई आग में घी डाल रहा है। एक तरफ नेता युवा पीढ़ी से मतदान करने की अपील कर रहे हैं तो दूसरी तरफ राजनीति के स्तर को गिराने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे।
जवाहर लाल नेहरू, दीनदयाल उपाध्याय, राममनोहर लोहिया और कांशीराम के नाम पर वोट मांग रहे नेताओं को इनके आदर्शों की कतई परवाह नहीं। यह लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं है।