अजीब विडंबना है कि प्राकृतिक संसाधनों के दोहन पर टिका हमारे विकास का ढांचा, दिन-प्रतिदिन तरक्की के नए सोपान तो गढ़ रहा है, पर इसके कारण होने वाली दुश्वारियों का कोई समाधान इसके पास नहीं है। अब जल-संकट को ही लें, देश में हालात इतने खराब हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जनता से यह अपील करनी पड़ी कि जल-भंडारण के पारंपरिक तरीकों और पौराणिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया जाए। ये वे तरीके और ज्ञान हैं जो विकास की चकाचौंध में देश से गुम होते जा रहे हैं। शायद ही ऐसा कोई शहर हो जो पुराने तालाबों-कुओं पर कब्जा किए बगैर विकसित हुआ हो। नदी, तालाब और कुएं सिर्फ उन्हीं इलाकों में जीवित बचे हैं जो किन्हीं वजहों से विकास की प्रचलित मान्यताओं से अछूते रह गए हैं। प्रधानमंत्री के आह्वान के बाद इसकी उम्मीद की जा सकती है कि सरकारें इस दिशा में ज्यादा संवेदनशीलता दिखाएंगी।
पारंपरिक ज्ञान में सदियों के अनुभवों का समावेश होता है, इसलिए विपरीत परिस्थितियों में हमेशा हमारे काम आता है। जल-संचयन भी ऐसा ही मामला है। विभिन्न भौगोलिक स्थितियों वाले देश में जल-संचयन के भी विभिन्न तौर-तरीके विकसित हुए हैं। राजस्थान की भौगोलिक स्थिति में तालाब के साथ-साथ नाड़ी, जोहड़ और गांव-घरों में बनाए गए टांके काफी उपयोगी रहे हैं। हालांकि इनमें ज्यादातर अब बदहाल हो चुके हैं। उसी तरह उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्यों में पहाड़ों से निकले पानी को बचाकर रखने का अलग तरीका विकसित हुआ जिसमें पत्थरों को काटकर पानी के मंदिर (टैंक) बनाए गए।
सातवीं शताब्दी में बनाए गए ऐसे करीब 64 हजार जल-मंदिरों में से करीब 60 हजार अब बेहतर रख-रखाव के अभाव में सूख चुके हैं। समुद्र तटीय इलाकों में पानी संजोने की अलग विधि रही है। यहां छोटे कुएं बनाने की परंपरा रही है, जो ऐसे इलाकों की पहचान कर बनाई जाती है जहां बारिश के दिनों में जलस्तर ऊपर रहता है। करीब एक मीटर गहराई वाले छोटे कुएं की दीवारों को नारियल के पेड़ों की लकडिय़ों से घेरा जाता है और इसके आसपास विभिन्न प्रकार के वृक्ष लगाए जाते हैं ताकि भीषण गर्मियों में भी पानी बचाया जा सके। देश के मैदानी इलाकों की नदियां भी अब असंगत विकास के कारण संकट में हैं। विचारणीय पक्ष यह है कि विकास की वर्तमान समझ को बदले बगैर क्या जल-संचय के पारंपरिक तरीकों को सुरक्षित रखा जा सकता है?