अर्थनीति में अभी बहुत परिवर्तन करने हैं जो बेहद आवश्यक हैं, किंतु आर्थिक पहिए के तेज गति से घूमते रहने के चलते ऐसे आधारभूत परिवर्तन करना सरल नहीं है। वर्तमान में कोरोना महामारी के चलते आर्थिक पहिया रुक सा गया है। इस अवसर का उपयोग कर भारत सरकार आर्थिक नीतियों में सुधार करने की मंशा दिखा चुकी है। परन्तु 70 वर्षों की अर्थव्यवस्था का पुनरायोजन करने के लिए साहस, दूरदृष्टि व निर्णयक्षमता के साथ- धैर्यपूर्ण व सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है। इन सभी प्रयासों में अपनी एकात्म, सर्वांगीण, सर्वसमावेशक मूलभूत विश्वदृष्टि के प्रकाश में युगानुकूल नई गतिविधियां स्वीकार करते हुए योजनाएं बनानी होंगी। भारत अब इस दिशा में चल पड़ा है। अब भारत ‘भारत’ के नाते अभिव्यक्त हो रहा है, दुनिया इसे देख रही है और अनुभव कर रही है। यह परिवर्तन, भारत को अपना सा और दुनिया को नया सा लग रहा है।
वह राष्ट्रीय जागरण जिसके दशकों लम्बे प्रयास के परिणामस्वरूप यह मूलभूत परिवर्तन आया उस सामाजिक चेतना का वामपंथियों, इस विचार से प्रेरित मीडिया तथा उदारवादी प्रबुद्ध वर्ग ने ‘राष्ट्रवादी’ कहकर निरंतर विरोध किया है। वास्तव में यह ‘राष्ट्रीय’ आंदोलन है ‘राष्ट्रवादी’ नहीं। ना ‘राष्ट्रवाद’ शब्द भारतीय है और ना ही उसकी अवधारणा। वह पश्चिम के राज्याधारित राष्ट्र (नेशन- स्टेट) से उत्पन्न हुआ है। इसीलिए वहां ‘नेशनलिज्म’ अर्थात् ‘राष्ट्रवाद’ है। इस पश्चिम के ‘राष्ट्रवाद’ ने दुनिया को दो विश्वयुद्ध दिए हैं। वहां का ‘राष्ट्रवाद’ पूंजीवाद की देन है और यह सुपर-राष्ट्रवाद (सुपरद्गनेशनलिज्म) साम्यवाद की श्रेणी में आता है। रूस ने अपने साम्यवादी विचारों को, बिना प्रदीर्घ अनुभव लिए, मध्य एशिया और पूर्व यूरोप के देशों में कैसे जबरदस्ती थोपने का प्रयास किया यह सर्वविदित है। उसी तरह चीन अपनी विस्तारवादी वृत्ति से हांगकांग और दक्षिण एशिया के देशों पर कैसी जबरदस्ती कर चीनी साम्राज्यवाद का परिचय दे रहा है, यह विश्व पर उजागर हो चुका है।
ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि छह देशों के 41 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर चीन का कब्जा है और 27 देशों से उसका विवाद चल रहा है। इसीलिए विश्व के अधिकतर देश चीन के साम्राज्यवाद या सुपर-राष्ट्रवाद के विरुद्ध लामबंद होते दिख रहे हैं। भारतीय विचार में ‘राष्ट्रवाद’ नहीं ‘राष्ट्रीयता’Ó का भाव है। हम ‘राष्ट्रवादी’ नहीं ‘राष्ट्रीय’ हैं। इसी कारण संघ का नाम ‘राष्ट्रवादी स्वयंसेवक संघ’ नहीं बल्कि ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ है। हमें कोई ‘राष्ट्रवाद’ नहीं लाना है। भारत की राष्ट्र की अवधारणा भारतीय जीवन दृष्टि पर आधारित है। यहां ‘राज्य’ नहीं, लोक (पीपुल) को राष्ट्र की संज्ञा दी गई है। विभिन्न भाषाएं बोलने वाले, अनेक जातियों के नाम से जाने जाने वाले, विविध देवी-देवताओं की उपासना करने वाले भारत के सभी लोग इस अध्यात्माधारित एकात्म, सर्वांगीण जीवन दृष्टि को अपना मानते हैं। और, उसी के माध्यम से सम्पूर्ण समाज और इस भूमि के साथ अपने आप को जुड़ा हुआ समझते हैं।
अपनी इस प्राचीन दृष्टि से सत्य देखकर उसे वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ढालते हुए आचरण करना ही भारत की राष्ट्रीयता का प्रकट होना है। इस साझी पहचान व हमारे आपसी बंधु-भाव के रिश्ते उजागर कर अपनत्व से समाज को देने का संस्कार जगाना ही राष्ट्रीय भाव का जागरण है। समाज जीवन के हर क्षेत्र में इस ‘राष्ट्रत्व’ का प्रकट होना, अभिव्यक्त होना ही राष्ट्रीय पुनर्निर्माण है।। यही ‘राष्ट्र’ के स्वत्व का जागरण और प्रकटीकरण है। राष्ट्र के ‘स्वत्व’ का प्रकट होना ‘राष्ट्रवाद’ कतई नहीं है।
चीन के विस्तारवादी आक्रामक रवैये की अभी की कुछ घटनाओं पर भारत के उत्तर को लेकर, वामपंथियों ने ऐसा प्रचार किया कि यह भारत का सुपर-राष्ट्रवाद है। दरअसल वामपंथ भारत के ‘स्वत्व’ को कभी समझ ही नहीं सका। वर्तमान संदर्भ में जो प्रकट हो रहा है यह कोई ‘राष्ट्रवाद’ नहीं बल्कि अब तक नकारा व दबाया गया भारत का ‘स्वत्व’ है। भारत का विचार ही “वसुधैव कुटुम्बकम” वर्तमान और “सर्वेपि सुखिन: सन्तु” का रहा है इसलिए भारत के इस स्वत्व के जागरण और उसकी आत्मनिर्भरता के आधार पर शक्ति संपन्न होने की योजना किसी के लिए भी भय रखने का कारण नहीं होने चाहिए, कारण यह भारत है, जो जाग रहा है।
भारत के इस स्वत्व के प्रकटीकरण का भारत में ही विरोध कोई नई बात नहीं है। स्वतंत्रता के पश्चात् जूनागढ़ रियासत की विलय प्रक्रिया पूरी कर भारत के तत्कालीन गृहमंत्री वल्लभभाई पटेल सोमनाथ गए। वहां 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक सुप्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर के खण्डहर देख उन्हें अत्यंत पीड़ा हुई। अब देश स्वतंत्र हो गया था तो भारत के इस गौरव स्थान की पुनस्र्थापना का संकल्प उनके मन में जगा। इस कार्य का उत्तरदायित्व उन्होंने पंडित नेहरू के मंत्रिमंडल के कैबिनेट मंत्री कन्हैयालाल मुंशी को सौंपा। सरदार पटेल ने जब यह जानकारी महात्मा गांधी से साझा की, तब गांधीजी ने इसका समर्थन किया परन्तु यह कार्य सरकारी धन से नहीं बल्कि जनता द्वारा जुटाए धन के माध्यम से करने की सलाह दी। उसे तुरंत स्वीकार किया गया। इस मंदिर की प्राणप्रतिष्ठा के लिए भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद आए थे। उस कार्यक्रम का डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद का भाषण महत्त्वपूर्ण है।
पंडित नेहरू को इससे आपत्ति थी। जिस घटना को सरदार पटेल, कन्हैयालाल मुंशी, महात्मा गांधी और राजेंद्र प्रसाद जैसे मूर्धन्य नेता भारत के गौरव की पुनस्र्थापना के रूप में देखते थे उसी घटना का प्रधानमंत्री नेहरू ने हिन्दू पुनरुत्थानवाद कहकर विरोध किया। इससे यह स्पष्ट होता है की भारत के स्वत्व को नकारना, उसके प्रकट होने का विरोध करना यह तब भी था। परन्तु उस समय राष्ट्रीय विचार के लोग, कांग्रेस में भी अधिक संख्या में थे। इसलिए यह कार्य सम्भव हो पाया।
आगे क्रमश:, योजनापूर्वक पद्धति से राष्ट्रीय विचार के नेतृत्व को हाशिए पर धकेला जाने लगा और साम्यवाद का प्रभाव कांग्रेस में बढ़ता गया। साम्यवाद तो आध्यात्मिकता को ही नहीं मानता है, इतना ही नहीं, साम्यवाद इस “राष्ट्र” अवधारणा को ही नहीं मानता। वह प्रकारांतर से पूंजीवाद जैसी ही औपनिवेशिक मानसिकता का प्रतिनिधि है। पहले सोवियत संघ और अब चीन भी उसी विस्तारवादी व अधिनायकवादी मानसिकता को दर्शाते हैं। तभी भारत के स्वत्व की बात समझने में वे असमर्थ हैं, या जानबूझकर इसका विरोध करते रहते हैं, ताकि यह देश एक सूत्र में जुड़े ही नहीं, वरन वह टुकड़े-टुकड़े होकर बिखरता रहे, कमजोर होता रहे।
देश के तपस्वियों ने जिस शक्ति का संचय किया वह बहुमूल्य है। विधाता उसे निष्फल नहीं होने देगा। इसलिए उचित समय पर उसने इस निश्चेष्ट भारत को कठोर वेदना देकर जाग्रत किया है। अनेकता में एकता की प्राप्ति और विविधता में ऐक्य की स्थापना, यही भारत का अंतर्निहित धर्म है। विविधता यानी विरोध ऐसा भारत ने कभी नहीं माना। विदेशी यानी शत्रु ऐसी भी भारत ने कभी कल्पना नहीं की। जो अपना है उसका त्याग किये बगैर, किसी का विनाश न करते हुए, एक व्यापक व्यवस्था में सभी को स्थान देने की उसकी इच्छा है। सर्व पंथो को वह स्वीकार करता है। अपने-अपने स्थान पर प्रत्येक का महत्व वह देख सकता है। भारत का यही गुण है। इसलिए किसी भी समाज को हम अपना विरोधी मानकर भयभीत नहीं होंगे। प्रत्येक नए संयोजन से अंतत: हम अपने विस्तार की ही अपेक्षा करेंगे। हिन्दू, बौद्ध, मुसलमान तथा ईसाई भारत की भूमि पर परस्पर युद्ध कर मर नहीं जाएंगे। यहां वे एक सामंजस्य प्राप्त करेंगे ही। वह सामंजस्य अहिंदू नहीं होगा बल्कि वह होगा विशेष रूप से हिन्दू। उसका अंग-प्रत्यंग भले ही देश-विदेश का हो परंतु उसका प्राण, उनकी आत्मा भारतीय होगी।
हम भारत के इस विधाता-निर्दिष्ट आदेश को स्मरण में रखेंगे, तो हमारी लज्जा दूर होगी, लक्ष्य स्थिर होगा। भारत में जो मृत्युहीन (अमर) शक्ति है, उससे हमारा अनुसंधान होगा। यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान को हमें हर समय विद्यार्थी के रूप में ग्रहण नहीं करना है, यह बात हमें ध्यान में रखनी होगी। ज्ञान-विज्ञान के सभी पंथो को भारत की सरस्वती एक ही शतदल कमल में विकसित करेगी, उसकी खंडितावस्था दूर करेगी। हमारे भारतीय मनीषी डॉक्टर जगदीश चन्द्र बसु ने वस्तुत्व, वनस्पतित्व तथा जन्तुत्व को एक ही क्षेत्र की सीमा में लाने का प्रयत्न किया है। क्या पता, एक मनस्तत्व को भी वह उनमें लाकर खड़ा कर दें। यह ऐक्य-साधन भारतीय प्रतिभा का मुख्य कार्य है। भारत किसी का त्याग करने के या किसी को दूर रखने के पक्ष में नहीं है। एक दिन वह सभी को स्वीकार कर, सभी को ग्रहण कर, एक विराट एकता में प्रत्येक को अपनी-अपनी प्रतिष्ठा उपलब्ध होने का एकता का मार्ग, विवाद एवं व्यवधानों से ग्रस्त इस पृथ्वी को दिखा देगा।
वह विलक्षण क्षण आने से पहले आप सभी उसे एक बार “मां” कह कर पुकार लो। भारत माता सभी को अपने पास बुलाने के लिए, अनेकता को मिटाने के लिए, सबकी रक्षा करने के लिए सतत् व्यस्त है। उसने अपने चिरसंचित ज्ञान, धर्म को विविध रूपों से, विविध अवसरों पर हम सबके अंत:करण में संचारित किया है तथा हमारे मन को पराधीनता की अंधेरी रातों में विनाश होने से बचाया है। अपनी संतानों से भरी इस यज्ञशाला में देश के मध्यस्थान में माता को प्रत्यक्ष प्राप्त करने के लिए प्राणपण से हम प्रयत्न करें।”(स्वदेशी समाज)
भारत के ‘स्वत्व’ को शक्ति और गौरव के साथ पुनस्र्थापित करने के इस ऐतिहासिक समय में भारत के सभी लोग अपनी राजनीति और अन्य निहित स्वार्थ किनारे रख एकता का परिचय दें और स्वाभिमानपूर्ण आत्मनिर्भर-भारत के निर्माण की इस यात्रा में सहभागी बनें यह अपेक्षा इस राष्ट्र की हम सब से है।