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जरूरी है नदियों की कसक को समझना

Published: Mar 22, 2017 11:58:00 am

यदि ऐसा हुआ तो भावी पीढ़ी हमें नदियों की दुर्दशा की अनदेखी करने के अपराध के लिए कभी क्षमा नहीं करेगी।

न्यू जीलैंड की एक अदालत ने कुछ दिनों पूर्व नदियों को सप्राण अस्तित्व (लीविंग एनटीटी) अर्थात् जीवित इकाई माना था। हाल ही में उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय की एक खण्डपीठ ने भी एक मामले की सुनवाई के दौरान गंगा और यमुना जैसी नदियों को जीवित इकाई मानते हुए फैसला सुनाया है कि संविधान द्वारा व्यक्तियों को प्रदत्त अधिकार नदियों के प्रकरण में भी अक्षुण्ण रहेंगे और नदियों के पानी को प्रदूषित करने वालों के खिलाफ समुचित कार्रवाई होगी। 
हालांकि हमारी बदली हुई जीवनशैली के मद्देनजर, ऐसे सभी व्यक्तियों या व्यक्ति समूहों के खिलाफ कार्रवाई कर पाना दिवास्वप्न सा प्रतीत होता है क्योंकि बड़े-बड़े शहर अपने अस्तित्व की गंदगी को नालों के रूप में नदियों में प्रवाहित कर रहे हैं। 
इस स्थिति को रातों-रात बदल पाना मुश्किल है लेकिन फिर भी यह एक सकारात्मक संकेत है कि लोकतंत्र को दिशा देने में सक्षम मानी जानी वाली संस्थाएं नदियों की दुर्दशा के प्रति चिंतित हुई हैं और असरकारक उपायों से बुरी स्थितियों को नियंत्रित करने के प्रति सजग दिख रही हैं। 
हां, यह आशंका अवश्य सताती है कि नदियों के प्रति हमारी संवेदनशीलता उस गंगा शुद्धि योजना की तरह एक प्रदर्शन मात्र नहीं बन कर रह जाए, जिस योजना के क्रियान्वयन के लिए पिछले कई बरसों में बेशुमार धन तो व्यय किया गया है, लेकिन गंगा आज भी अपनी दुर्दशा पर आंसू बहाती प्रतीत होती है। विकास की अंधाधुंध दौड़ ने नदियों के साथ बहुत छल किया है। 
राजस्थान के जयपुर शहर में द्रव्यवती नदी से लेकर मुंबई में नीरी नदी को जिस तरह से गंदे नाले में परिवर्तित कर दिया है, उससे पता चलता है कि हमने नदियों को पापमोचनी मानते हुए भी उनके साथ कैसा सलूक किया है। पंजाब के लुधियाना की कालीबेई नदी दूसरी नदियों की स्थिति सुधारने का एक बेहतर उदाहरण हो सकता है। 
बाबा हरचरण सिंह लोंगोवाल ने नाले में बदली इस नदी की सफाई का संकल्प लिया और प्रयासों में जुट गए। धीरे-धीरे उनकी मुहिम को दूसरे लोगों का भी समर्थन मिला और कालीबेई में फिर स्वच्छ जल बहने लगा। कालीबेई की सफाई से साबित होता है कि मन में चेतना व संकल्प हो तो नदियों को प्रदूषण से मुक्त किया जा सकता है। वरना, ऐसा न हो कि सभ्यता के प्रारंभ से ही मानव जीवन की संभावनाओं को संवारने वाली नदियां मनुष्य के स्वार्थी आचरण से सरस्वती की तरह लुप्त हो जाएं। 
यदि ऐसा हुआ तो भावी पीढ़ी हमें नदियों की दुर्दशा की अनदेखी करने के अपराध के लिए कभी क्षमा नहीं करेगी। 

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