हमें यह भी लिखना होगा कि हमारा आपदा प्रबंधन तंत्र आपदा से निपटने के लिए एक सीमा तक ही तैयार रहता है और चढ़ाई पर चढ़ते तांगे की तरह अधिक सवारियां होने पर या चढ़ाई कठिन होने पर उलटने लगता है। प्रवासी होना जीवन का एक अंग है, चाहे वे पक्षी हों या हम इंसान, पर इसमें समय और संख्या की सीमा और अपने मूल को न भूलना भी अनिवार्य अंग हैं। संक्रमण से फैलने वाली बड़ी बीमारियां यह सीख देती हैं कि जहां तक संभव हो, हम अपने-अपने क्षेत्र में ही स्थाई डेरा डालें। विडंबना यह है कि आबादियां बड़ी से बड़ी बसावटों की ओर पलायन कर रही हैं और मुसीबत में इसका ठीक उलटा प्रवाह होता है। हड़बड़ाहट में लोग लौटने लगते है। हमने यह स्पष्ट देख लिया कि आपदा में कई चीजें कितना भी दाम चुकाने पर नहीं मिलतीं और यह भी कि हममें से ही कुछ लोग इस अवसर को भुनाने में लग जाते हैं। जब लोग अपने परिजनों को या स्वयं को तिल-तिल मरते देख रहे थे, उस वक्त भी कितने ही लोग उनसे पैसा खींचने की कोशिश कर रहे थे। यह सब लिखना होगा। कितने ईमानदार लोग कर्तव्य निभाते हुए ‘शहीद’ हो गए, उन सेनानियों की गाथाएं भी लिखनी होंगी।
हिरोडोटस नामक ग्रीक लेखक एवं भूगोलविद इतिहासकार, जिन्हें संस्कृत में हरिदत्त के नाम से जाना जाता है, ने इस पर विस्तार से लिखा है कि कैसे प्रकृति आबादी में ‘भोज्य और भोजन’ या ‘शिकारी और शिकार’ का संतुलन बनाकर रखती है। इसमें गड़बड़ होने पर प्रकृति का आपदा तंत्र अपना काम शुरू कर देता है, जो हम पर भारी पड़ता है। अधिक भारी तब पड़ता है, जब बात हमारी समझ में नहीं आती। जिन्हें हम यमदूत कहते हैं, वे वास्तव में नियमदूत होते हैं। प्रकृति का तो काम स्थाई समाधान करना है।
प्लेटो के प्रसिद्ध संवादों टाईमियस और प्रोटागोरस में प्रकृति के संतुलन की बात कही गई है। 1962 में प्रकाशित राशेल कार्सन की पुस्तक ‘साइलेंट स्प्रिंग’ पर्यावरण पर एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। 1970 में जेम्स लवलॉक और लिन मार्गुलिस ने एक गाईया परिकल्पना तैयार की, जिसमें पृथ्वी को एक जटिल जीवित इकाई बताया गया है, जिसका जीवों और उनके भौतिक परिवेश से एक संतुलन कायम है। गाईया ग्रीक शास्त्रों में पृथ्वी देवी का नाम है। हमारे यहां तो धरती माता और जीवों के संबंध के बारे में ग्रंथ भरे पड़े हैं।