आप तो जैसे-तैसे अपना रास्ता पार करके अपने गंतव्य तक पहुंचना चाहते हैं। शीघ्रता से मंजिल को छू लेने की हड़बड़ी में आपको सड़क की पीड़ा कहां दिखाई देती है। सड़कें चाहे टूटी हो या फूटी। या फिर भरी गर्मी में सड़क पर घुटने तक सीवर का पानी भरा हो, आपको उससे कोई मतलब नहीं होता।
जब भी आप बेहाल सड़कों से गुजरते हैं तो यही सोचते हैं, आज अंतिम बार यहां से गुजर रहे हैं। बेचारी सड़कें भी करें तो करें क्या? हमारे पुरखों ने जब सड़कों के लिए जगह छोड़ी थी तो उन्हें पता ही नहीं था कि उनके वक्त की विशाल सड़कें अब पगडंडी में परिवर्तित हो जाएगी।
ऐसा नहीं कि ठंड से वे सड़क सिकुड़ गई हैं। सड़क तो उतनी ही है पर उस पर चलने और खड़े होने वाले वाहनों की संख्या और लम्बाई-चौड़ाई इतनी ज्यादा हो गई कि सड़कों पर जगह ही नहीं बची। आपके पास एक पल का वक्त है तो जरा अपनी विचारधारा को बचपन की तरफ मोड़ दीजिए।
जो सड़कें आज संकड़ी लग रही हैं, चालीस बरस पहले वे ही रास्ते विशाल नजर आते थे। जैसे एक पुरानी हवेली में पचास साल पहले जहां चार लोग रहते थे, आज उसी में चालीस जने रह रहे हैं। सड़क को तो रोना ही है, जब हमने उस पर इतने वाहन दौड़ा दिए जितनी क्षमता उसकी है ही नहीं।
विकास के नाम पर सड़कों की छाती पर गाड़ियों का भार रख दिया है और अतिक्रमण करके गला घोंट दिया। अब बेचारी सड़क रोएगी नहीं तो क्या जश्न मनाएगी? जो सड़कें हमें मंजिल तक ले जाती हैं उसके आंसू देखने का भी हमारे पास समय नहीं है। वाह रे राहगीरों वाह।
व्यंग्य राही की कलम से