आज पूरा पश्चिमी अमरीका जल संकट से जूझ रहा है। कम से कम सात राज्यों में गंभीर अकाल की स्थिति बनी हुई है। जंगलों में आग लगने की महामारी फैली हुई है। यूनाइटेड लेक मीड में सबसे बड़ा जलाशय सूख रहा है। 1930 में इसके निर्माण के बाद से इसका मौजूदा जलस्तर अब तक का सबसे कम है। अनुमानत: ढाई करोड़ लोगों के घर, व्यापार और खेतों के पानी की जरूरत लेक मीड से ही पूरी होती है, जिसमें कोलोराडो नदी से पानी आता है। इससे भी बढ़कर, अधिकांश लोग बिजली आपूर्ति के लिए हूवर डैम पर निर्भर हैं। पानी की आपूर्ति कम होने से बांध की कार्यक्षमता पर बुरा असर पड़ा है। लेक पॉवेल का भी यही हाल है। ऊपरी जल स्रोतों से पानी छोडऩे की योजना पर विचार चल रहा है लेकिन यह तो वही बात हुई जैसे एक को लूटकर दूसरे को देना। उन जलाशयों से पश्चिम के लाखों अन्य लोगों की व्यावसायिक व कृषि जरूरतें पूरी होती हैं। जल संकट की आहट साफ सुनाई दे रही है। इसके मद्देनजर बड़े पैमाने पर त्वरित कार्रवाई की जरूरत है। बड़े जाखिम को देखते हुए पश्चिमवासी जलवायु व पर्यावरण के मुद्दे पर बहस में उलझे रहेंगे। वामपंथी हों या दक्षिणपंथी, रिपब्लिकन हो या डेमोक्रेट, प्यासा आखिर प्यासा ही है।
समस्या की असल वजह है-कपोल कथाएं। सालों पहले जब पश्चिम का नामोनिशां नहीं था, कोलोराडो नदी के आसपास के लोगों ने साझेदारी में पानी के इस्तेमाल के समझौते किए। अन्य नदी क्षेत्रों में भी ऐसे ही समझौते किए गए। अपनी सहूलियत के लिए राज्यों ने मान लिया कि कोलोराडो में अत्यधिक पानी है, जबकि वास्तव में उतना नहीं था। लंबे सूखे के इस हालात में पानी का व्यय बहुत ज्यादा है। मांग कम थी, तब तक यह ठीक था। इस समस्या का कोई एकमात्र समाधान नहीं है। इसलिए सभी विकल्पों पर विचार करना जरूरी है। कृषि के कुशल तरीके अपनाने होंगे। ज्यादा सिंचाई की जरूरत वाली फसलें – अल्फाअल्फा, कपास, धान और बादाम को अधिक पानी वाली जगहों पर उगाया जाए। पश्चिमी तटीय शहरों को ‘डिसैलिनेशन प्लांट्स’ (पानी से नमक हटाने वाले संयंत्र) में निवेश करना चाहिए। इससे समुद्री जल से उपयोग योग्य पानी की मात्रा बढ़ाई जा सकती है। जल का घरेलू एवं व्यावसायिक उपयोग भी कम करने की जरूरत है।
ये सारे उपाय तुरंत और बड़े पैमाने पर करने की जरूरत है। इस साल एरिजोना में भविष्य के लिए पानी की बचत के दावों के अनुसार पानी के इस्तेमाल को कम करने संबंधी विधेयक सर्वसम्मति से पारित हुआ हैै। इन दिनों द्विपक्षीय वार्ता के जरिए समस्याओं के हल की कोशिश यों भी कम ही नजर आती है।