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राष्ट्रपति जिनपिंग की धमकी का क्या मतलब

अर्थव्यवस्था के वैश्विक उदारीकरण का लाभ उठाकर पिछले तीन दशकों में उल्लेखनीय तरक्की के बावजूद अपनी विस्तारवादी नीतियों के कारण चीन कई देशों के आंखों की किरकरी भी बन गया है।

Jul 02, 2021 / 09:00 am

विकास गुप्ता

राष्ट्रपति जिनपिंग की धमकी का क्या मतलब

राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) के 100 साल पूरे होने के मौके का इस्तेमाल दुनिया को धमकाने के लिए किया। पार्टी की वर्षगांठ पर ऐसा करने की जरूरत उन्हें क्यों पड़ी? क्या लंबे शासन ने पार्टी पर उनकी पकड़ को कमजोर किया है और आक्रामक रुख अपना कर अपनी छवि सुधारना इसका उद्देश्य है। या वाकई वह दुनिया को यह संदेश देना चाहते हैं कि चीन अब इतना ताकतवर हो गया है कि इसे हल्के में लेना ठीक नहीं है। सच तो यह है कि पिछले कुछ सालों में चीन की वजह से दुनिया के समक्ष कई ऐसी चुनौतियां पैदा हो गई हैं, जिनका आसानी से समाधान निकलता नहीं दिख रहा है।

विपरीत वजहों से चीन लगातार दुनिया में चर्चा का केंद्र बना हुआ है। अर्थव्यवस्था के वैश्विक उदारीकरण का लाभ उठाकर पिछले तीन दशकों में उल्लेखनीय तरक्की के बावजूद अपनी विस्तारवादी नीतियों के कारण चीन कई देशों के आंखों की किरकरी भी बन गया है। भारत, जापान, ताइवान, भूटान जैसे देश इसके उदाहरण हैं। ताजा प्रकरण कोरोना वायरस का है। इसका सबसे पहले चीन में सामने आना और पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लेना ऐसा रहस्य है जिसका खुलासा जब तक नहीं होता, वह संदेह के घेरे में ही रहेगा। विडंबना देखिए कि अपने पड़ोसियों को लगातार परेशान करने वाले राष्ट्रपति जिनपिंग ने कहा कि ‘हम किसी अन्य देश को परेशान, उत्पीडि़त या अधीन नहीं करते। …हम विदेशी ताकतों को धमकाने, उत्पीडि़त करने या अपने अधीन करने की अनुमति नहीं देंगे। अगर ऐसा किया गया तो मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा।’ ऐतिहासिक थियानमन चौक पर करीब एक घंटे के भाषण में जिनपिंग ने अनेक विरोधाभासी बातें कहीं। उन्होंने ताइवान की स्वतंत्रता को अस्वीकार करते हुए उसे अपने अधीन करने का लक्ष्य भी इसी समारोह में दोहरा दिया। इस उलटबांसी में चीन की मंशा को समझना जरूरी है। अमरीका के साथ भारत की बढ़ती घनिष्ठता को भी वह अपने लिए खतरा मानता है।

इसमें कोई शक नहीं कि सोवियत संघ के विघटन के बाद चीन साम्यवादी विचारधारा का झंडाबरदार बना हुआ है। पर यह भी उतना ही सच है कि एक संपूर्ण विचारधारा के रूप में साम्यवाद अब समाप्त हो चुका है। सोवियत संघ का हश्र सामने आने के बाद चीन ने साम्यवाद को अपने तरीके से परिभाषित किया और पूंजीवादी अवधारणाओं को समाहित कर उसका लाभ उठाया। ठीक वैसे ही, जैसे कभी भारत में जवाहरलाल नेहरू ने अपनी नीतियों में साम्यवादी अवधारणाओं को जगह दी थी। सीपीसी की वर्षगांठ हमें यह सोचने का मौका जरूर देती है कि क्या पूंजीवादी विचारधारा में साम्यवादी हिस्सा मिलाकर कोई राह निकाली जा सकती है?

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