दुर्लभ क्यों होते हैं ‘काले बाघ-
म्यूटेंट, आनुवांशिक भिन्नताएं हैं जो अनायास हो सकती हैं लेकिन प्राकृतिक रूप से बार-बार नहीं। काले बाघों को देखे जाने का दावा 1773 से किया जाता रहा है। 1913 में म्यांमार में और 1950 में चीन में भी ऐसे ही दावे किए गए। 1993 में दिल्ली के नेशनल म्यूजियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री में जब्त की गई काले बाघ की खाल प्रदर्शित की गई थी, जिसका स्रोत ज्ञात नहीं था। पूरे जीनोम के आंकड़ों और चिडिय़ाघरों के बाघों के संबंधों के विश्लेषण के जरिए अध्ययन में पाया गया कि छद्म-मेलनिज्म का संबंध ट्रांसमेम्ब्रेन एमिनोपेप्टिडेस क्यू में एक अकेले म्यूटेशन से है। काले बाघों और अन्य बाघों के बीच जीन प्रवाह बेहद दुर्लभ है, कारण अप्रभावी या छिपे हुए छद्म-मेलनिज्म जीन हैं। अप्रभावी जीन केवल प्रबल जीन की गैर-मौजदूगी में ही असर दिखा सकते हैं। ऐसे में अप्रभावी जीन वाले सामान्य पैटर्न के बाघ-बाघिन से चार में से एक ही काले बाघ के जन्म लेने की सम्भावना होती है।
सिमलीपाल के टाइगर सबसे अलग-
नंदनकानन (भुवनेश्वर), अरिग्नार अन्ना जूलॉजिकल पार्क (चेन्नई) और बिरसा जैविक पार्क (रांची) में जो छद्म-मेलनिज्म काले बाघ हैं, सभी का सिमलीपाल से पुश्तैनी रिश्ता है। पिछले अध्ययनों में बाघों के तीन आनुवांशिक समूहों का पता चला था। इसमें सिमलीपाल के बाघ आनुवांशिक रूप से सबसे अलग हैं। बाघों के अन्य आवासों की तुलना में सिमलीपाल गहरा वनाच्छादित, उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय और अलग-थलग क्षेत्र है।
बाघ अभयारण्यों में हो प्राकृतिक जुड़ाव-
बाघों के आवासों को छोटे-छोटे हिस्सों में बांटे जाने जैसी मानव-जनित बाधाओं का सिमलीपाल एकमात्र उदाहरण नहीं है, जो देश के कुछ हिस्सों में बाघों की कम आबादी की वजह है। दीर्घकाल में बाघों के तमाम रिजर्व, जंगलों और अभयारण्यों के बीच प्राकृतिक तौर पर जुड़ाव कायम करने का कोई विकल्प नहीं है।