राजनीतिक हलकों में ये सवाल रह-रह कर उठता है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस आखिर अपना घर क्यों नहीं संभाल पा रही? गोवा में भाजपा से चार सीट अधिक जीतने के बावजूद राज्य में पार्टी सरकार नहीं बना पाई। कर्नाटक और मध्यप्रदेश में अपनी सरकारें गंवा दीं। और अब जहां कांग्रेस मजबूत है वहां भी नेताओं में आपसी खींचतान थमने का नाम नहीं ले रही।
देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में छह महीने बाद विधानसभा चुनाव होने वाले हैं लेकिन वहां भी कांग्रेस नेताओं का पार्टी छोडऩे का सिलसिला जारी है। पहले वरिष्ठ नेता जतिन प्रसाद पार्टी छोड़ गए तो उसके बाद पार्टी के वरिष्ठ नेता रहे कमलापति त्रिपाठी के प्रपौत्र ललितेशपति त्रिपाठी पार्टी का साथ छोड़ चुके हैं। यह मानने में कोई हर्ज नहीं कि कांग्रेस बहुत बड़ी पार्टी है और दो-चार नेताओं के अलग होने से इस पर कोई असर नहीं पड़ता। लेकिन इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि पार्टी अब पहले जैसी नहीं रही। इसके पास अभी ऐसा कोई करिश्माई नेता नहीं है, जिसके सहारे पार्टी चुनावी नैय्या पार कर सके। राजस्थान, छत्तीसगढ़ व पंजाब में इसकी सरकारें हिचकोले खा रही हैं। हर जगह गुटों में बंटी पार्टी को एक मंच पर लाने वाला कोई नजर नहीं आ रहा।
सवाल सिर्फ चुनावी हार-जीत का नहीं है। सवाल मजबूत विपक्ष का भी है। ऐसा विपक्ष जो संसद से लेकर सड़क तक सरकार पर दबाव बनाए रख सके। अगर प्रमुख विपक्षी दल आपसी लड़ाई में ही मशगूल रहेगा तो जनता की आवाज उठाएगा कौन? बात इन राज्यों तक ही सीमित नहीं है। हरियाणा से लेकर गुजरात और महाराष्ट्र से लेकर तमिलनाडु तक पार्टी के हाल एक से हैं। केरल से राहुल गांधी लोकसभा में पहुंचे है। लिहाजा वहां पार्टी की गुटबाजी नहीं रोक पाने की जिम्मेदारी उन पर भी आती है।