जिन्होंने कविताओं से फिरंगियों के खिलाफ किया क्रांति का आह्वान
बांग्ला के प्रसिद्ध कवि नजरूल इस्लाम विद्रोह के प्रतिमान बन गए थे। नजरूल इस्लाम की कविताओं का संग्रह ‘बिशेर बंशी ‘ (विष की बांसुरी) अंग्रेजों ने प्रतिबंधित किया, तो क्रांतिकारियों ने उसे चोरी- छुपे अपने साथियों तक पहुंचाया।
जिन्होंने कविताओं से फिरंगियों के खिलाफ किया क्रांति का आह्वान
जिन्होंने कविताओं से फिरंगियों के खिलाफ किया क्रांति का आह्वान अतुल कनक
साहित्यकार और
लेखक
काजी नजरूल इस्लाम का नाम भारतीय स्वतंत्रता चेतना के इतिहास में हमेशा महत्त्वपूर्ण रहेगा। उन्होंने अपनी कविताओं से न केवल अंग्रेजों की साम्राज्यवादी अनीतियों का विरोध किया, बल्कि आमजन में स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रति उत्साह भी जगाया। काजी नजरूल इस्लाम का व्यक्तित्व किसी के भी लिए प्रेरणाप्रद हो सकता है। वे भारत के उस सांस्कृतिक सद्भाव के पोषक थे, जिसे आम बोलचाल में गंगा-जमुनी तहजीब कहते हैं। मदरसे में शिक्षा पाने और एक मस्जिद के मुअज्जिन होने के बावजूद नजरूल इस्लाम ने बंगाली भाषा में कृष्ण भक्ति के कई गीत लिखे। उनके लिखे गीतों को आज भी धार्मिक अवसरों पर श्रद्धा के साथ गाया जाता है। उनके लिखे एक गीत का अनुवाद है -‘जगजन मोहन संकटहारी/ कृष्णमुरारी श्रीकृष्णमुरारी/रास रचावत श्याम बिहारी/ परम योगी प्रभू भवभयहारी। ‘ काजी नजरूल इस्लाम का बचपन संंकट में बीता। उनके जीवन की विसंगतियों के कारण उनके कुछ रिश्तेदारों और मोहल्ले वालों ने तो उन्हें दुक्खू मियां कहकर ही संबोधित करना शुरू कर दिया था। इसके बावजूद उन्होंने दुखों के सामने कभी हार स्वीकार नहीं की। वे परिस्थितियों से लड़ते रहे । अंतस की इसी ऊर्जा ने उन्हें ‘बिरोधी कवि ‘ अर्थात् ‘विद्रोही कवि ‘ की पहचान दे दी।
22 सितंबर 1922 को अपने प्रकाशन धूमकेतु के पूजा अंक में उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के समर्थन में अपनी एक कविता ‘आनंद मोयीर अगमने ‘ (एक प्रसन्न माता का आगमन) का प्रकाशन किया। उन्हें गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया। जेल में उन्होंने जेल अधिकारियों के बर्ताव के खिलाफ भूख हड़ताल करके ब्रिटिश हुक्मरानों को हिला दिया। इसी दौरान उन्होंने कई कविताओं का सृजन किया, जिनमें से एक ‘बिरोधी ‘ उनकी पहचान का पर्याय हो गई। उनकी लंबी कविता ‘अग्निवीणाÓ भी इसी साल सामने आई। यानी यह नजरूल इस्लाम की क्रांतिकारी चेतना के उत्कर्ष का शताब्दी वर्ष है। उनकी लोकप्रियता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि स्वयं रविन्द्र नाथ टैगोर ने वर्ष 1923 में अपना नाटक ‘बसंत ‘ नजरूल इस्लाम को समर्पित किया था। कविताओं का संग्रह ‘बिशेर बंशीÓ (विष की बांसुरी) अंग्रेजों ने प्रतिबंधित किया, तो क्रांतिकारियों ने उसे चोरी-छुपे अपने साथियों तक पहुंचाया। ‘बिशेर बंशी ‘ की कविताएं फिरंगियों के खिलाफ क्रांति का आह्वान करती थीं।
बांग्लादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान) में जब स्वतंत्रता आंदोलन प्रारंभ हुआ, तो नजरूल की कविताओं ने जैसे उस आंदोलन में प्राण फूंके। 1971 में बांग्लादेश को एक स्वतंत्र देश के रूप में पहचान मिली। 24 मई 1972 को बांग्लादेश की सरकार उनको भारत सरकार की सहमति से ढाका ले गई। वर्ष 1976 में उन्हें बांग्लादेश की नागरिकता दी गई। बांग्लादेश ने उन्हें अपने राष्ट्र कवि का दर्जा दिया। भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से अलंकृत किया था। 29 अगस्त 1976 को भक्ति और विद्रोह की चेतना के इस अनूठे संगम ने हमेशा के लिए आंखें मूंद लीं।
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