अगली तारीख को जो फैसला हो, बुधवार की सुनवाई में सर्वोच्च अदालत ने एक ऐसी बात कही है, जिसकी गूंज हमारे लोकतंत्र में देर तक सुनाई देगी। किसी सरकार में विवेक हुआ तो वह इस किस्म की गिरफ्तारियों से पहले सौ बार सोचेगी। खंडपीठ के सदस्य न्यायमूर्ति डीवाइ चंद्रचूड़ ने कहा कि असहमति लोकतंत्र में सेफ्टी वाल्व का काम करती है। यह वाल्व नहीं होगा तो (लोकतंत्र का) प्रेशर कुकर फट जाएगा। मौजूदा दौर की मुश्किल यही है कि असहिष्णुता इतनी पसर चुकी है कि असहमति लोगों से बर्दाश्त नहीं। अक्सर असहमति का जवाब, वह भी हिंसक, देने की कोशिश होती है द्ग कानून सरासर हाथ में लेते हुए।
ऐसे परिवेश में हम यह न भूलें कि 2014 से भारतीय समाज का एक नया ही ध्रुवीकरण किया जा रहा है। यह वह ध्रुवीकरण नहीं है, जो राजनीतिक सत्ता पाने के लिए किया जाता रहा है। हम न इसकी कोई मर्यादा बना सके हैं और न इसकी कोई कानूनी काट खोज सके हैं। लगता है जैसे लोकतंत्र का चरित्र ही बदल देने की तैयारी चल रही है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने यह सख्त टिप्पणी की कि असहमति को कुचलने का सरकार का यह रवैया बड़े खतरे का संकेत देता है। गिरफ्तार पांचों व्यक्ति आज के नहीं, वर्षों के आजमाए हुए सामाजिक कार्यकर्ता हैं जिन्होंने हमेशा उन लोगों की आवाज उठाई है जिनकी आवाज उठाना जब-तब अपराध-सा मान लिया जाता है। आवाज लोकतंत्र का अविभाज्य अंग है। अगर वह अपराध है तो सारा लोकतंत्र धोखे की पट्टी में बदल जाएगा। इसलिए हम बहुत सहमत हों या न हों, असहमति की आवाज को कहीं भी दबाया जाए तो देश की सामूहिक चेतना को आवाज उठानी चाहिए। हमें तसल्ली अनुभव होनी चाहिए कि 28 की सुबह की गिरफ्तारियों के खिलाफ सारे देश में आवाज उठी।
लेकिन बात इससे आगे जाती है। राज्यसत्ता को संविधानसम्मत हिंसा का लाइसेंस हमने ही दे रखा है। इस सांप के पास विष है, यह हम जानते हैं। लेकिन हमें यह भी जानना चाहिए कि संविधान ने इस विष का मुकाबला करने के दो हथियार भी हमें दिए हैं। पहला यह कि समाज अपने कार्यकलापों में हिंसा का सहारा न ले तो सरकारी हिंसा निरुपाय हो जाती है। यही वह रणनीति है जिसके सहारे महात्मा गांधी ने संसार के सबसे बड़े साम्राज्य को अप्रभावी बना दिया था।
सामाजिक कार्यकर्ता यदि हिंसा की रणनीति नहीं बनाते हैं, सामाजिक हिंसा को उकसाते नहीं हैं, तो वे राज्य की हिंसा को अप्रभावी ही नहीं बनाते हैं, बल्कि राज्य को अनुशासित करने वाली दूसरी संवैधानिक ताकत न्यायपालिका को भी समर्थ बनाते हैं। हमें यह बात गांठ बांध लेनी चाहिए कि किसी भी स्तर पर, कैसी भी हिंसा राज्य को वैसी गर्हित हिंसा करने का अवसर देती है जिसकी ताक में वह रहती है। आप सामाजिक हिंसा की रणनीति बनाएंगे तो राज्य की सौ गुना बलशाली अमर्यादित हिंसा से नागरिकों को बचा नहीं सकेंगे।
आज केंद्र की और राज्य की सरकारों को भी कई जवाब देने हैं। इन गिरफ्तारियों से पहले सनातन संस्था का बड़ा मामला फूटा था और कई चेहरे सामने आए थे जो हिंसा के षड्यंत्रकारी सिपाही रहे हैं। वह सारा मामला किसी की नींद ***** नहीं कर सका। आज कहीं से यह बात चलाई गई है कि देश में यहां-वहां प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश हो रही है। जब प्रधानमंत्री गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे, तब भी ऐसा सुना जाता था। प्रधानमंत्री की रक्षा में कोई चूक न हो, इससे कौन इनकार करेगा। लेकिन देश के बौद्धिक जगत के कई लोगों की हत्या के प्रति सरकारें उदासीन रहें और कई मजबूत प्रमाणों के बावजूद कोई प्रभावी कार्रवाई न हो, इसे भी कौन स्वीकार करेगा?
सनातन संस्था को महाराष्ट्र सरकार की एजेंसी ने ही बेनकाब किया है। उसके पास से ऐसी सूची बरामद हुई है जिसमें जिनकी हत्या करनी है, उनके नाम दर्ज हैं। गौरी लंकेश की हत्या के मामले में अब तक जितनी गिरफ्तारियां हुई हैं, वे बता रही हैं कि ऐसी सारी हत्याओं के पीछे एक ही संगठन, एक ही दिमाग, एक ही थैली का इस्तेमाल हुआ है। इसे आप पर्दे में रखें और आवाज उठाने वालों को कुचल कर, देश को डरा कर मुट्ठी में रखने की रणनीति बनाएंगे तो देश भी हारेगा और आप भी।
कुमार प्रशांत
लेखक और कार्यकर्ता