जिन्होंने दी प्रागैतिहासिक कला की व्यवस्थित भारतीय दृष्टि
Published: Aug 28, 2022 09:45:38 pm
आर्ट एंड कल्चर: साहित्य-कला और पुरातत्त्व के अंत:संबंधों के संवाहक पुरातत्त्ववेत्ता और कला-मर्मज्ञ थे डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर
राजेश कुमार व्यास
कला समीक्षक शैल चित्र मनुष्य की संभावनाओं का कला-इतिहास है। स्पेन के आल्तामीरा से भी 12 वर्ष पहले भारत में पुराविद् आर्किबोल्ड कार्लाइल ने बहुत से स्थानों पर शैल चित्रों की खोज कर ली थी। पर कला की दृष्टि से सर्वाधिक सुंदर शैल चित्रों की खोज देश में किसी ने की तो वह ड़ॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर थे। भोपाल से होशंगाबाद जाते उन्होंने 1957-58 में पर्वतों में गुम भीमबेटका गुफाओं की तलाश की थी। पर उन्होंने यही बड़ा कार्य नहीं किया था, कला इतिहास की भारतीय दृष्टि के और भी महत्त्वपूर्ण सूत्र हमें दिए। विडम्बना ही है कि इस पर बहुत अधिक ध्यान अभी तक नहीं गया है।
डॉ. वाकणकर ने चंबल और नर्मदा के नालों की खोज की। सारनाथ, बनारस, अमरावती, महेश्वर आदि के कला इतिहास का सूक्ष्म अन्वेषण कर मौलिक भारतीय स्थापनाएं दीं तो सरस्वती नदी के उद्गम और प्रवाह मार्ग के साथ देश के ऐतिहासिक-सांस्कृतिक मानचित्र की भी भारतीय दीठ से पुन: व्याख्या की। स्वयं वह बहुत अच्छे चित्रकार थे। कई लिपियों के जानकार थे। संगीत की गहरी समझ थी। नृत्य से जुड़ी भारतीय विरासत से यह उनका सरोकार ही था कि शैल चित्रों के रूपात्मक से भावात्मक सौंदर्य के बहुतेरे अनछुए पहलुओं की ओर हमारा ध्यान दिलाया। जंगलों, पहाड़ों में घूमते उन्होंने चार हजार से अधिक रॉक गुफाओं की खोज ही नहीं की, इतिहास के विस्मृत उन पन्नों की भी धूल उतारी जिनमें कलाओं की हमारी मूल दृष्टि कहीं गुम हो रही थी।
सतपुड़ा, विंध्याचल पर्वत शृंखलाओं में शैलचित्रों का जो भव उन्होंने तलाशा, उसके साथ प्रागैतिहासिक भारतीय कलाओं का उपेक्षित प्राय: सौन्दर्यान्वेषण भी इस दौरान किया। उन्होंने परम्पराओं और लोक मान्यताओं, पुराकथाओं के संदर्भ टटोलते अपनी खोज को प्रमाणित किया।
ब्रिटिश पुरातत्त्ववेत्ताओं के पास उत्खनन के लिए समुचित साधन रहे हैं, सहयोगी रहे हैं पर वाकणकर कला-मन के धुनी थे सो उन्होंने अपनी राह सदा खुद बनाई। न कोई रास्ता, न कोई संकेत। बस धुन थी। बड़ी-बड़ी चट्टानों पर चढ़ते-उतरते वह आदि मानव द्वारा सिरजी कलाओं तक पहुंच जाते। ट्रेन में एक दफा उन्होंने लोगों को बातचीत करते सुना कि दूर पहाड़ों में भूत-प्रेत रहते हैं। रात में वह प्रकट होते हैं और दिन में चट्टानों में चित्र बन समा जाते हैं। उन्होंने वहीं उतरकर भीमबेटका की गुफाएं ढूंढ निकाली थीं। वह कोट की जेब में कच्चे आलू रखते। भूख लगती तो रेत में भूनकर उन्हें खा लेते। असल में वाकणकर पुरातत्त्ववेत्ता ही नहीं थे, सौंदर्यबोध और विरल भारतीय कला दृष्टि उनमें थी। यह था तभी तो शैल चित्रों के जरिए उन्होंने भारतीय कलाओं के यथार्थ, उनकी वास्तविक छवि और सौंदर्य की दृष्टि से जुड़े भी महती अध्ययन हमें दिए। पर प्रागैतिहासिक चित्रों में बरते रंग, उनमें संगीत, नृत्य और वैदिक भारतीय धर्म-अनुष्ठानों के संदर्भ में उनका शोध अभी भी कहां प्रकाश में आया है, जिसके जरिए भारतीय कला-इतिहास को नई दृष्टि मिल सकती है।
डॉ. वाकणकर ने प्रागैतिहासिक शैल चित्रों की खोज के साथ प्रागैतिहासिक कला की व्यवस्थित भारतीय दृष्टि हमें दी। अध्ययन, अन्वेषण के साथ चित्रों के विषय-वस्तु एवं कला सौंदर्य का उनका अनुशीलन हमारे सांस्कृतिक इतिहास की और भी बहुत-सी खिड़कियां खोलने वाला है। मुझे लगता है, यह वाकणकर ही थे जिन्होंने साहित्य-कला और पुरातत्त्व के अंत:संबंधों में अपने अन्वेषण से सनातन भारतीय संस्कृति के बीज अंकुरित किए हैं। प्रयास करेंगे तो इसके और भी मीठे फल हम भविष्य में पा सकते हैं।