scriptकौन हैं ‘भारत माता’, ‘वन्दे मातरम्’ केवल वंदना है या राष्ट्रीय संकल्प | Who is 'Bharat Mata', 'Vande Mataram' ? | Patrika News

कौन हैं ‘भारत माता’, ‘वन्दे मातरम्’ केवल वंदना है या राष्ट्रीय संकल्प

locationनई दिल्लीPublished: Oct 25, 2021 08:11:57 am

Submitted by:

Patrika Desk

– काशी यानी वाराणसी में भारत माता मंदिर का निर्माण राष्ट्र भक्त बाबू शिवप्रसाद गुप्त ने कराया। 25 अक्टूबर 1936 को (दुर्गा नवमी के दिन) महात्मा गांधी के कर-कमलों से इस मंदिर के प्रथम दर्शन का अनुष्ठान पूर्ण हुआ था।- भारत की संस्कृति में ‘वसुधैवकुटुम्बकम्’ की अवधारणा है। मनुष्यमात्र ही नहीं, समस्त प्राणी और समूची सृष्टि के लिए सह-अस्तित्व और सामंजस्य की बोधक है हमारी संस्कृति। परन्तु राष्ट्र-वंदना की महत्ता इससे कम नहीं होती। मनुष्यता का परिष्कार भारतीय संस्कृति का मूल तत्त्व है।

Bharat Mata Temple in Varanasi

Bharat Mata Temple in Varanasi

विजयदत्त श्रीधर, (वरिष्ठ पत्रकार, संस्थापक, सप्रे संग्रहालय, भोपाल)

सभा-समारोहों में राष्ट्रगीत ‘वन्दे मातरम्’ बड़े सम्मान और गौरव के साथ गाया जाता है। जैसे ही गीत पूरा होता है समारोह में समवेत कण्ठों से नारा गूंजता है – ‘भारत माता’ की जय। ओज और संकल्प से भरपूर यह जयनाद राष्ट्रीय प्रतिध्वनि का परिचायक होता है। सवाल उठता है कि भारत माता कौन हैं? राष्ट्रगीत में हम किस माता की वन्दना करते हैं? यद्यपि भारत माता तर्क-बुद्धि का विषय नहीं, निष्ठा-बोध की अधिष्ठात्री हैं। तथापि प्रश्न उठता है तो उत्तर भी मिलना चाहिए। इसके लिए ‘आनन्दमठ’ का पारायण सहायक हो सकता है।

यशस्वी बांग्ला उपन्यासकार बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का बहुपठित बहुचर्चित उपन्यास ‘आनन्दमठ’ सन् 1882 में प्रकाशित हुआ। संन्यासी विद्रोह के कथानक से इस उपन्यास का ताना-बाना बुना गया है। एक पात्र है भवानन्द जो अपने साथी महेन्द्र के साथ निर्जन वन से गुजर रहा है। दोनों के बीच मौन है। एकाएक मौन भंग करने के लिए भवानन्द गाने लगते हैं –

वन्दे मातरम्
सुजलाम् सुफलाम् मलयज शीतलाम्
शस्य श्यामलाम् मातरम्।
महेन्द्र ने मौन तोड़ा- माता कौन? भवानन्द ने उत्तर नहीं दिया, गाते रहे-
शुभ्र ज्योत्सनाम् पुलकित यामिनीम्
फुल्ल कुसुमित द्रुमदल शोभिनीम्
सुहासिनीम् सुमधुर भाषिणीम्
सुखदाम् वरदाम् मातरम्।
महेन्द्र बोले – यह तो देश है, मां नहीं।

भवानन्द कहते हैं – हम लोग दूसरी किसी मां को नहीं मानते। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। हम कहते हैं जन्मभूमि ही माता है। हमारी न कोई मां है, न बाप, न भाई, न बंधु, न पत्नी, न पुत्र, न घर, न द्वार… हमारे लिए केवल सुजला सुफला मलयज… समीरण-शीतला, शस्य श्यामला… बात महेन्द्र की समझ में आई, बोला – तो फिर गाओ।

उपर्युक्त कथोपकथन में भारत माता का परिचय मिल जाता है। उनकी महत्ता समझी जा सकती है। भवानन्द सदृश भारत माता की करोड़ों संतानों की मातृ-भक्ति का मर्म हृदयंगम किया जा सकता है। ‘वन्दे मातरम्’ गीत की रचना सन् 1875 में हुई। बाद में यह गीत ‘आनंदमठ’ का भाग बना। पहली बार 1896 की कोलकाता कांग्रेस में ‘वन्दे मातरम्’ गाया गया। तभी से राष्ट्रीय आंदोलन का हर कार्य इसी राष्ट्र-वंदना से आरंभ होने लगा। यह गीत स्वतंत्रता संग्राम का बीज मंत्र बन गया। ऐसा प्रेरक मंत्र जिसे गाते हुए आजादी के दीवाने भारत माता की परतंत्रता की बेडिय़ां काटने के लिए सर्वस्व न्योछावर करने को तत्पर रहते थे। सीने पर गोली खाना है तो ‘वन्दे मातरम्’। फांसी के फंदे पर झूलने के लिए ले जाए जा रहे हैं तो ‘वन्दे मातरम्’। इसी भाव-भूमि पर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज की हुंकार बना – जयहिन्द।

पहले पहल भारत माता की तस्वीर सन् 1905 में उकेरी गई। अवनीन्द्रनाथ टैगोर ने यह चित्र बनाया था। यह बंग-भंग से उपजे आक्रोश और आंदोलन का समय था। वायसराय कर्जन की विभाजनकारी करतूत से अकेला बंगाल ही नहीं, पूरा देश क्षुब्ध था। फिरंगियों को सबक सिखाने के लिए ‘स्वदेशी का अंगीकार और विदेशी का बहिष्कार’ राष्ट्रीय अनुष्ठान बन गया था। ऐसे प्रखर वातावरण में ‘भारत माता’ का चित्र सामने आना स्वतंत्रता संग्राम के लिए तेजस्वी प्रतीक की प्राप्ति जैसा सिद्ध हुआ। अवनीन्द्रनाथ टैगोर ने भगवा वस्त्रधारी साध्वी के रूप में भारत माता को चित्रित किया। चार भुजाओं वाली माता – जिनके एक हाथ में ग्रंथ, दूसरे में बाली, तीसरे में वस्त्र और चौथे हाथ में रुद्राक्ष की माला।

देवी माता के रूप में भारत माता का यह चित्रण स्वतंत्रता सेनानियों के लिए तो प्रेरणा का स्रोत बना ही, अन्य भारतीयों के लिए भी पूजनीय बिम्ब रच गया। सनातनधर्मियों की देवी मां चाहे वे विद्या-बुद्धि-विवेक की देवी सरस्वती हों, चाहे धन-धान्य की देवी लक्ष्मी हों अथवा शक्ति की देवी भवानी हों, चतुर्भुज ही रची जाती हैं। तब राष्ट्रमाता का स्वरूप भी स्वाभाविक ही वैसा ही उकेरा गया था। भारत माता के चित्रण का सिलसिला अनवरत है। सबसे ज्यादा प्रचलित वह चित्र है, जिसमें भारत के मानचित्र में ध्वज धारण किए हुए भारत माता खड़ी हैं। पाश्र्व में सिंह अंकित है।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को आस्था का पहला संबल महाराष्ट्र में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणेश उत्सव के सार्वजनिक आयोजन की परंपरा का सूत्रपात करते हुए किया था। भारत माता की अवधारणा को लोक आस्था का आधार बंग-भंग से उपजे जन आक्रोश ने दिया। देखते ही देखते भारत माता की अवधारणा व वंदे मातरम् का मंत्र राष्ट्रव्यापी हो गया। आजादी की लड़ाई के महानायकों जैसे महात्मा गांधी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस व पंडित नेहरू ने इस संबंध में अपने मंतव्य से जन आस्था की पुष्टि की।

भारत की संस्कृति में ‘वसुधैवकुटुम्बकम्’ की अवधारणा है। मनुष्यमात्र ही नहीं, समस्त प्राणी और समूची सृष्टि के लिए सह-अस्तित्व और सामंजस्य की बोधक है हमारी संस्कृति। परन्तु राष्ट्र-वंदना की महत्ता इससे कम नहीं होती। मनुष्यता का परिष्कार भारतीय संस्कृति का मूल तत्त्व है। ‘वन्दे मातरम्’ का गायन और ‘भारत माता की जय’ यही संदेश देते हैं कि जन्मभूमि से बढ़ कर और कुछ नहीं। यही हमारी अस्मिता का आधार है। हमारे अस्तित्व का मानचिह्न है। तभी तो कवि ने गाया है – हे मातृभूमि तेरी जय हो! सदा विजय हो!

loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो