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किसे पुकारें!

Published: Nov 04, 2015 10:56:00 pm

हमारे देश का लोकतंत्र देश की जनता को जोड़ने के लिए है
तब तमाम दलों और नेताओं को उसे जाति, धर्म, क्षेत्र और अन्य तमाम कारणों से बांटने
की अनुमति क्यों दी जाए?

Opinion news

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बिहार में गुरूवार को आखिरी दौर का मतदान हो जाएगा। आठ नवम्बर को मतगणना के साथ किसी एक पार्टी को नहीं बल्कि किसी एक गठबंधन को सत्ता मिलने का रास्ता भी साफ हो जाएगा। जिसे सत्ता मिलेगी, वह पूरे पांच साल सत्ता सुन्दरी का भोग करेगा। और जनता! केवल बिहार की ही नहीं अपितु पूरे देश की जनता उन कांटों का दर्द भोगेगी जो बिहार की सत्ता पाने के लिए वहां तमाम राजनीतिक दलों ने बोए हैं। क्या नहीं बोया इन राजनीतिक दलों ने वहां।

नफरत से लेकर अविश्वास तक के बीज बोए हैं। और वह भी केवल अपने दल या गठबंधन के नेता और कार्यकर्ताओं तक ही सीमित नहीं रहे, बाकायदा जनता तक पहुंचाए हैंं। ये बीज हैं भी इतने उन्नत नस्ल के कि बोते ही काटने के लिए फसल तैयार हो जाती है। जिस तरह रबी और खरीफ के लिए अलग-अलग फसलें होती हैं, मैदानी, रेगिस्तानी, पहाड़ी और दलदली इलाकों की अपनी विशिष्ट फसलें होती हैं, उसी तरह हमारे राजनेताओं ने हर चरण के लिए अलग-अलग बीज बोए हैं। किसी चरण के लिए अगड़े-पिछड़े का तो किसी के लिए शहरी-ग्रामीण का।

कहीं जरूरत पड़ी तो धर्म को भी दांव पर लगा दिया। इस तरह हर चरण और क्षेत्र के लिए अलग-अलग नेताओं को मुखिया का दावेदार बनाने से भी नहीं चूके। आश्चर्य-अफसोस इस बात का है कि इस काम में कोई पीछे नहीं रहा। न प्रधानमंत्री न मंत्री। न मुख्यमंत्री न पूर्व केन्द्रीय मंत्री। न दागी न साफ छवि वाले। तब देश की जनता किससे उम्मीद करे? जब बाड़ ही खेत को खाने लगे तब वह किसकी तरफ देखे और किसे पुकारे?

यह एक ऎसा प्रश्न है जिस पर देश की जनता ही नहीं, उसकी चिंता करने वाले तमाम राजनीतिक, सामाजिक और मानवाधिकार संगठनों को भी चिंतन-मनन करना चाहिए। जनता उनसे क्या और कितनी उम्मीद करे, इस सवाल के बीच देश के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और मुख्य चुनाव आयुक्त को मिल-बैठकर इस बात पर चिंतन-मनन करना चाहिए कि हमारे देश का लोकतंत्र देश की जनता को जोड़ने के लिए है तब तमाम राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को उसे जाति, धर्म, क्षेत्र और अन्य तमाम कारणों से बांटने की अनुमति क्यों दी जाए? इन पंच-परमेश्वरों में होना प्रधानमंत्री को भी चाहिए, लेकिन पार्टी दायरे से ऊपर उठकर।

औरों की भी जरूरत हो तो इसमें जोड़ें। तय करें कि चुनाव अभियानों में कौन-कौन से मुद्दे उठाए जा सकते हैं और कौन से नहीं। जो तय हो उसे दिशा-निर्देश नहीं, कानून की शक्ल दें तभी यह देश बच पाएगा। अन्यथा हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का राग अलापते रह जाएंगे और मुल्क टूट जाएगा।
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