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कौन होगा सियासी सिकंदर

Published: Apr 15, 2016 11:33:00 pm

पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों पर इस वक्त सबकी नजरे हैं।
हो भी क्यों न, आखिर भाजपा-कांग्रेस और मजबूत क्षत्रपों के बीच घमासान जो
हो रहा है

Opinion news

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पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों पर इस वक्त सबकी नजरे हैं। हो भी क्यों न, आखिर भाजपा-कांग्रेस और मजबूत क्षत्रपों के बीच घमासान जो हो रहा है। वैसे इन राज्यों में अगर किसी पार्टी का सबकुछ दांव पर लगा है तो वह है कांग्रेस और अगर किसी पार्टी के पास यहां अपना अस्तित्व बनाने और बढ़ाने का मौका है तो वह है भाजपा। लोकसभा चुनाव और उसके बाद महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू-कश्मीर में जीत के बाद दिल्ली और बिहार में लगे ब्रेक को भाजपा तोडऩा चाहेगी। असम में उसे मजबूत माना जा रहा है। तमिलनाडु, प. बंगाल, केरल और पुड्डुचेरी में वह आधार बढ़ाने की जुगत में है। वहीं कांग्रेस के लिए ये परिणाम वजूद बचाने की चुनौती रहेंगे। केरल व असम में उसकी सरकार है, तमिलनाडु, प. बंगाल में सहयोगियों के सहारे है। प. बंगाल में दीदी और तमिलनाडु में अम्मा रूपी क्षत्रप ही बड़े दावेदार के तौर पर हैं…

अजीत मैंदोला

पांच राज्यों के चुनाव परिणाम कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए खासे मायने रखने वाले हैं। हालंकि भाजपा के लिए असम, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल और पुड्डीचेरी में खोने के लिए कुछ नहीं है, लेकिन असम की जीत भी उसके लिए आक्ïसीजन से कम नहीं होगी। बाकी राज्यों में यदि उसने दो-चार सीटें भी जीत ली तो उसे वह उपलब्धि तो बता ही सकती है। लेकिन वहीं कांग्रेस के लिए यह चुनाव वजूद बचाने की चुनौती हैं।

क्योंकि केरल और असम में उसकी सरकार है। जबकि तमिलनाडू और परिश्चम बंगाल में वह अपने पुराने सहयोगियों के सहारे उम्मीद बांधे हुए है। मौजूदा हालात कांग्रेस के लिए यूं भी अच्छे नहीं चल रहे हैं। खास तौर पर अरुणाचल और उत्तराखंड में सरकार गिरने के बाद। अब यदि केरल में वापसी नहीं कर पाती है और असम में उसको सफलता नहीं मिलती है तो कांग्रेस के लिए यह तगड़ा झटका होगा।

क्योंकि उसके हाथ से दो और राज्य निकल जाएंगे। इसके बाद बचे -खुचे राज्यों पर भी खतरा बढ़ जाएगा। भाजपा और केंद्र की मोदी सरकार जो भी कहे, अरुणाचल और उत्तराखंड के बाद कांग्रेस केंद्र पर भरोसा नहीं कर सकती है। जानकार भी मान रहे हैं कि कांग्रेस शासित राज्यों को अस्थिर करने की कोशिश केंद्र की तरफ से जारी रहेगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनाव के समय कांग्रेस मुक्त भारत की बात जो कही थी, उसका खतरा बढ़ जाएगा।

कांग्रेस मुक्त भारत का खतरा
कांग्रेस के पास यूं भी कर्नाटक को छोड़ बाकी राज्य छोटे-मोटे ही हैं। हिमाचल और मणिपुर पर खतरा पहले से ही मंडरा रहा है। वो तो उत्तराखंड का मामला अदालत में फंसा रहने के चलते मणिपुर और हिमाचल का मामला गति नहीं पकड़ पाया। वर्ना कांग्रेस के लिए नया संकट खड़ा हो सकता था। खैर बात कांग्रेस मुक्त भारत की हो रही थी। भाजपा ने यदि असम में जोड़ -तोड़ कर सफलता पा ली तो फिर कांग्रेस के लिए खतरा बढ़ जाएगा। अभी तक पांच राज्यों की जो रिपोर्ट आ रही हैं उनमें कांग्रेस के लिए अच्छे संकेत नहीं है।

असम की रिपोर्ट में तीसरे दल के नेता बहरुद्दीन अजमल के उपमुख्यमंत्री के प्रचार ने भी कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया है। तीसरी बार शासन कर रही कांग्रेस को इस बार असम से खासी उम्मीद थी। अंतिम दौर में चुनाव के साम्प्रदायिक रंग लेने से मामला चिंताजनक हो गया है। हालंकि कांग्रेस उम्मीद कर रही है कि जैसे-तैसे सरकार बना लेगी। लेकिन चूकी तो फिर हालात चिंताजनक हो जाएंगे। एक तो शासित राज्यों को बचाने की चुनौती होगी, दूसरा कार्यकर्ताओं के गिरते मनोबल को बचाना। इन राज्यों के चुनाव के बाद 2017 में पंजाब, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्य सामने होंगे।

जहां पर कांग्रेस को लेकर अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगा। पांच राज्यों के चुनाव के बाद फैसला जो भी रहे, पर कांग्रेस को बड़ा फैसला करना ही होगा। दो पावर सेंटर कांग्रेस के हित में नहीं जा रहे हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में मिली हार के दो साल बाद भी कांग्रेस में कोई बदलाव नहीं किए जाने से भी असमंजस की स्थिति बनी हुई है। नए-पुराने का झंझट जस का तस है। राज्यों में भी हालात बहुत अच्छे नहीं हैं।

इन कमजोरियों से पार्टी को उभारने के लिए राहुल गांधी को अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी जल्द संभाल लेनी चाहिए, जिससे कार्यकर्ताओं में सक्रियता बढ़े और पार्टी के भीतर चल रही खींचतान पर भी अंकुश लग सके। क्योंकि विपक्ष खासतौर पर भाजपा इसी कमजोरी का लाभ उठा रही है। भाजपा को लग रहा है कि कांग्रेस में नेतृत्व को लेकर जब तक दुविधा बनी है तब तक उसे कमजोर किया जाए। हालंकि भाजपा के लिए भी राहें बहुत आसान नहीं हैं। क्योंकि पांच राज्यों के चुनाव को लेकर उसके नेता यह कह कर पल्ला झाड़ ले रहे हैं कि उनके पास इन राज्यों में कुछ भी खोने को नहीं है। उनका कोई आधार नहीं है। लेकिन उनके लिए भी यह चुनाव किसी भी मायने में कम नहीं है।

लेना होगा बड़ा फैसला
दिल्ली और बिहार की हार के बाद भाजपा ने अपनी रणनीति में काफी बदलाव किया है। एक तो उसने राज्य के नेताओं को महत्व देना शुरू कर दिया। दूसरा संघ की भी सुननी शुरू कर दी है। असम में लोकल नेतृत्व को सामने रख चुनाव लड़ा। संघ की पसंद और नापसंद का भी पूरा ध्यान रखा, जिसका असर धीरे-धीरे बाद में दिखाई भी पड़ा। बाकी मदद भारत माता की जय से जैसे मुद्दों ने की। कांग्रेस के हिंदू-मुस्लिम चुनाव के फार्मुले को भाजपा ने छीन लिया जिसका लाभ उसे मिलता दिख रहा है। यदि भाजपा ने असम में किसी प्रकार का चमत्कार कर दिया तो उसके लिए यह जीत उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्य में संजीवनी का काम करेगी।

हालंकि असल पता 19 मई को चलेगा जब परिणाम आएंगे। भाजपा ने कोशिश तो बाकी राज्यों में भी की है, लेकिन वहां पर केवल खाता खोलने की कोशिश भर है। असल ताकत असम पर ही लगाई। अब यदि भाजपा की कोशिश को असम में झटका लगा तो फिर उसके लिए हालात एकदम उलट हो जाएंगे। कांग्रेस फि र उसे चौतरफा घेरने का मौका नहीं छोड़ेगी। उत्तर प्रदेश और पंजाब जैसे राज्य में फिर वह कोई चमत्कार नहीं कर पाएगी।

बिहार की हार से सबक लिया
 उत्तर प्रदेश में भाजपा ने संघ की पसंद केशव मौर्य को अध्यक्ष बना पिछड़ों का कार्ड खेला है। लेकिन असम की हार के बाद वह कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं रहेगी। उत्तर प्रदेश में बसपा जो कि अभी नंबर एक पर चल रही है उसके भी हौंसले बुलंद हो जाएंगे। कांग्रेस और जद यू तथा इनेलो का गठबंधन भी उसे ही निशाने पर लेगा। पंजाब में हो सकता है कि अकाली -भाजपा गठबंधन दौड़ में ही न दिखाई दे।

पंजाब में आम आदमी पार्टी ने धीरे-धीरे जगह बनानी शुरू कर दी है। जो रिपोर्ट आ रही हैं उसमें आप और कांग्रेस के बीच मुकाबला माना जा रहा है। जो भाजपा के लिए खतरे की घंटी साबित होगा। पंजाब और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य हाथ से निकल गए तो फिर भाजपा और नरेंद्र मोदी के लिए बाकी राज्यों में भी चुनौती मिलना तय है। 2017 के बाद 2018 में राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ जैसे राज्यों के चुनाव सामने होंगे। जहां पर अभी भाजपा की सरकारें हैं और उनके राजकाज को लेकर नकारात्मक चुनौती भी होगी। इसलिए असम जैसे राज्य का चुनाव परिणाम कहीं ना कहीं संकेत दे देगा कि देश की राजनीति किस दिशा में जाएगी। इसलिए असम जो जीतेगा वह सिकंदर कहलाएगा।

भाजपा ने संघ की पसंद का रखा ध्यान
भाजपा को लग रहा है कि कांग्रेस में नेतृत्व को लेकर जब तक दुविधा बनी है तब तक उसे कमजोर किया जाए। हालंकि भाजपा के लिए भी राहें बहुत आसान नहीं हैं। क्योंकि पांच राज्यों के चुनाव को लेकर उसके नेता यह कह कर पल्ला झाड़ रहे हैं कि उनके पास इन राज्यों में कुछ भी खोने को नहीं है। यह बाात सही है कि इन राज्यों में भले ही जिनका कोई आधार नहीं है उनके लिए भी यह चुनाव किसी भी मायने में कम नहीं है। यह बात भी ध्यान में रखनी होगी कि दिल्ली और बिहार की हार के बाद भाजपा ने अपनी रणनीति में काफी बदलाव किया है। इसके तहत एक ओर उसने राज्य के नेताओं को चुनावों में महत्व देना शुरू कर दिया। वहीं दूसरी ओर संघ व इसके नेताओं की भी सुननी शुरू कर दी है। असम में लोकल नेतृत्व को सामने रख चुनाव लड़ा। संघ की पसंद और नापसंद का भी पूरा ध्यान रखा।

वोटबैंक बढ़ाने की जुगत में भाजपा
एन. के सिंह वरिष्ठ पत्रकार, महासचिव बीईए
भाजपा को 2009 के मुकाबले 2014 के लोकसभा चुनावों में 18.3 फीसदी से बढ़कर अचानक 31 फीसदी वोट मिलते हैं तो इसका श्रेय नरेन्द्र मोदी के रूप में एक व्यक्ति को मिलता है। लेकिन इस सफलता के बाद जो चुनाव आते गए तो यह आकलन होने लगा कि अब मोदी क्या करेंगे? बिहार के चुनाव भाजपा और मोदी के लिए इसलिए खासे अहम थे क्योंकि बिहार और उत्तरप्रदेश के नतीजों से पूरे उत्तर भारत में संदेश जाता है।

दिल्ली से हुई शुरुआत
भाजपा की बिहार में पराजय कोई अचानक नहीं हुई। दिल्ली ने एक बड़ा संदेश दिया। जिस पार्टी को लोकसभा में दिल्ली की सभी सीटें मिलीं हो वहां विधानसभा में आप पार्टी का मत प्रतिशत 56 फीसदी हो गया। मानना चाहिए कि दिल्ली के नतीजे मोदी के खिलाफ नहीं बल्कि भाजपा के खिलाफ थे। पर बिहार में तो खुद मोदी के भाषणों को मुद्दा बनाया गया और आग में घी डालने का काम मोहन भागवत के आरक्षण को लेकर दिए बयान ने किया।

असम से है उम्मीद
अभी पांच राज्यों के चुनाव नतीजे भाजपा की परफोरमेंस दिखाने वाले होंगे। इन राज्यों में कहीं भी भाजपा सत्ता में नहीं है फिर भी उसका प्रदर्शन अपेक्षाकृत बेहतर होगा। सबसे ज्यादा उम्मीद भाजपा को असम से हैं। यह हकीकत भी है कि भाजपा वहां अच्छा करने जा रही है। इसलिए नहीं कि उत्तर-पूर्व में मोदी स्वीकार्य हैं बल्कि इसलिए कि गत बीस सालों में वहां आरएसएस ने धरातल पर काम किया है। असम चुनावों के दौरान जिस तरह का साम्प्रदायिक धु्रवीकरण हुआ है उससे भाजपा को फायदा मिलने वाला है। यह उम्मीद इसलिए भी की जानी चाहिए कि देश भी में जहां भाजपा को 31 फीसदी वोट मिले वहीं असम में यह आंकड़ा 36.5 फीसदी का था। कांग्रेस इस चुनाव में अल्पसंख्यक बहुल मतदाताओं वाले इलाकों में भी बदरुद्दीन अजमल की पार्टी से अलग लड़ रही है। ऐसे में यह वोट बैंक भी बंटा है।

अस्पष्ट हैं हालात
प. बंगाल में ममता बनर्जी को अब भी मध्यम व निचले वर्ग का समर्थन हासिल है। तमिलनाडु में भाजपा कुछ कर सकती थी लेकिन रणनीतिक कमजोरी के कारण उसे वहां अकेले ही लडऩा पड़ रहा है। उसके पुराने साथियों ने भी साथ छोड़ दिया। केरल में कांटे की टक्कर में कुछ कहा नहीं जा सकता। लेकिन यह जरूर है कि भाजपा को यहां दो-चार सीटें भी मिलीं तो वह किंगमेकर की भूमिका में रहेगी।

तमिलनाडु में भी जिस तरह से चार पार्टियों का फ्रंट बना है वहां के नतीजों के बारे स्पष्ट कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन भाजपा के बारे में इतना जरूर उम्मीद की जानी चाहिए कि इन चुनावों में सभी जगह उसका वोट प्रतिशत बढऩे वाला है। भले ही यह सीटों में तब्दील नहीं हो पाए। इन पांच राज्यों में कांग्रेस के पास खोने को बहुत कुछ है। तमाम दूसरे राज्यों में भी अभी कांग्रेस बुरी हालत से गुजर रही है। इसलिए इन चुनावों में कुछ अनुकूल हुआ तो वह कांग्रेस के लिए बूस्टर का काम करेगा, जिसकी उम्मीद कम दिखती है। सारा दोष इस पार्टी के नेतृत्व में परिपक्कवता की कमी का है। फिर भी ये नतीजे भविष्य की दिशा जरूर तय करेंगे।


हिंदुत्व की छवि से निकले…
राजनीतिक दलों की असली परीक्षा तो उत्तरप्रदेश के चुनावों में होनी है। खास तौर से भाजपा व कांग्रेस की। भाजपा ने तो हार्डकोर हिन्दुत्व का बाना पहना है। शायद यह संघ के दबाव में हो। लेकिन मुझे नहीं लगता कि आने वाले चुनावों में यह नरेन्द्र मोदी के पक्ष में होगा। मोदी सरकार का आकलन अब उसके कामकाज से होना है न कि नारों से। आक्रामक हिन्दुत्व की छवि उसको उत्तरप्रदेश में भी नुकसान देगी। सीधी बात है भाजपा जब भी हिन्दुत्व की बात करती है एक बड़ा वर्ग उसका साथ छोडऩे लगता है।
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