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चुनाव कोई जीते, भारत के साथ बने रहेंगे प्रगाढ़ संबंध

अमरीका में राष्ट्रपति चुनाव के लिए आज मतदान हो रहा है। अमरीका दुनिया की महाशक्ति है, उसकी नीतियां पूरे विश्व को प्रभावित करती हैं। इसलिए इन चुनावों पर पूरे विश्व की निगाह है। दोनों प्रत्याशियों के अपने अलग-अलग वैश्विक दृष्टिकोण और प्राथमिकताएं हैं। डॉनल्ड ट्रंप की सोच अमरीका की मुख्यधारा से कुछ अलग नजर आती है।

जयपुरNov 05, 2024 / 01:17 pm

विकास माथुर

राष्ट्रपति चाहे डॉनल्ड ट्रंप बनें या कमला हैरिस, भारत के अमरीका के साथ प्रगाढ़ संबंधों में किसी तरह की अप्रत्याशित बाधा आने की संभावना बहुत कम है। यूरोप और एशिया में परंपरागत अमरीकी सहयोगी देशों के विपरीत भारत ने ट्रंप और बाइडन दोनों प्रशासनों के तहत अमरीका से अपने रिश्तों को मजबूत बनाया है। व्यापार और करों के अतिरिक्त किसी अन्य मद्दे पर भारत का ट्रंप प्रशासन से कभी टकराव नहीं हुआ।
अमरीकी राजनीतिक व्यवस्था की एक खासियत यह भी है कि राष्ट्रपति के ताकतवर होने के बावजूद अन्य संस्थाएं जैसे कांग्रेस, निजी व्यापारिक क्षेत्र और सैन्य प्रतिष्ठान भी नीति निर्धारण में अहमियत रखते हैं। भारत सरकार ने इन संस्थाओं के साथ समानांतर रिश्ते बनाकर ट्रंप कार्यकाल की अनेक अनिश्चितताओं का सफलतापूर्वक सामना किया। दुनिया के साथ अमरीका के जुड़ाव में उसके कॉर्पोरेट जगत की अहम भूमिका है। भारत और अमरीका के मध्य व्यापारिक एवं तकनीकी क्षेत्रों में बढ़ती निकटता की बदौलत ट्रंप की वापसी पर भारत, अमरीका के व्यावसायिक जगत से अच्छे समर्थन की उम्मीद कर सकता है। जहां तक कमला हैरिस की बात है तो उनकी भारतीय पृष्ठभूमि से भारत को अब तक कोई खास फायदा नहीं मिला है।
स्मरण रहे कि 2019 में जब भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को निरस्त किया था तो हैरिस ने इस कदम की आलोचना की थी। उस समय वह कैलिफोर्निया से सीनेटर थीं और 2020 के चुनाव के लिए संभावित डेमोक्रेटिक उम्मीदवार थीं। लेकिन जब बाइडन सत्ता में आए और हैरिस को उपराष्ट्रपति बनाया गया तो बाइडन के प्रभाव से भारत के प्रति हैरिस के दृष्टिकोण में काफी बदलाव आया।
गौरतलब है कि ओबामा प्रशासन में उपराष्ट्रपति बनने से पहले बाइडन एक दशक से भी ज्यादा समय तक अमरीकी सीनेट की विदेश संबंध समिति के या तो अध्यक्ष रहे या वरिष्ठ सदस्य। इस कारण राष्ट्रपति बनने से बहुत पहले ही उन्होंने विदेश नीति पर अपनी पकड़ मजबूत बना ली थी। हैरिस को ऐसा अवसर नहीं मिल पाया। उन्होंने तो उपराष्ट्रपति के तौर पर भारत ही नहीं बल्कि चीन का भी दौरा नहीं किया है। लेकिन फिर भी भारत को इस बात की ज्यादा परवाह करने की जरूरत नहीं है कि हैरिस की भारतीय सुरक्षा चिंताओं को लेकर बहुत कम रुचि है। दरअसल, अमरीका में अब द्विदलीय आम सहमति सी बन गई है जो कि भारत के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए रखने और चीन के साथ भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता की पक्षधर है। चूंकि भारत, ब्रिक्स आर्थिक गठबंधन का अहम खिलाड़ी है तो बाइडन प्रशासन ने सूझबूझ दिखाते हुए कई बार दोहराया है कि अमरीकी नीति अपने भागीदारों से अमरीका या अन्य देशों के बीच चयन करने के लिए कोई दबाव नहीं डालती। प्रत्येक देश को इस बारे में संप्रभु निर्णय लेने का अधिकार है कि वे किसके साथ और किस प्रारूप में जुड़ेंगे। हैरिस से भी कमोबेश यही नीति जारी रखने की उम्मीद है। वहीं दूसरी ओर, ट्रंप ने हाल ही में डॉलर का उपयोग बंद करने वाले देशों से आयात पर टैरिफ को 100 प्रतिशत तक बढ़ाने की धमकी देकर स्पष्ट कर दिया है कि उनकी मंशा अंतरराष्ट्रीय बाजार में डॉलर की अहमियत को बनाए रखने की है। रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को ट्रंप का समर्थक माना जाता है क्योंकि अपने पिछले कार्यकाल में ट्रंप का रवैया रूस के प्रति नरम था।
जाने-माने पत्रकार बॉब वुडवर्ड ने अपनी नई पुस्तक में यह दावा किया है कि राष्ट्रपति पद छोडऩे के बाद से लेकर ट्रंप ने पुतिन को सात बार फोन पर बात की है। पिछले दिनों एक साक्षात्कार में ट्रंप ने यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की पर युद्ध आंरभ करने और यूक्रेन की तबाही का दोष मढ़ा है। बाइडन की बुद्धिमत्ता की खिल्ली उड़ाते हुए ट्रंप ने दावा किया कि अगर अमरीकी राष्ट्रपति चतुर होते तो यूक्रेन युद्ध का समाधान बहुत पहले हो गया होता। इसलिए पुतिन को उम्मीद है कि जीतने के बाद ट्रंप यूक्रेन को दी जाने वाली अमरीकी सैन्य सहायता में कटौती करेंगे जिसका सीधा लाभ रूसी सेना को होगा। हालांकि ट्रंप की जीत से भारत पर रूस के साथ संबंध विच्छेद करने का अमरीकी दबाव कम होने की उम्मीद है। इस बीच हैरिस ने ट्रंप द्वारा अमरीका के यूरोपीय सहयोगियों का साथ छोडऩे की इच्छा जताने के लिए कई बार आलोचना की है। बाइडन की भांति हैरिस का भी यह मानना है कि अमरीका का वैश्विक प्रभुत्व उन समस्त वैश्विक संगठनों की मजबूती में है जिन्हें खड़ा करने में अमरीका का योगदान रहा है।
नाटो तथा यूक्रेन की रक्षा को लेकर हैरिस की प्रतिबद्धता जगजाहिर है। इसलिए हैरिस के सत्ता में आने के बाद रूस के सवाल पर भारत से अमरीका के रिश्ते थोड़े जटिल हो सकते हैं। रूस को कथित प्रतिबंधित सामग्री के निर्यात पर भारत की 19 निजी कंपनियों और दो नागरिकों पर अमरीकी प्रतिबंध की हालिया मार इसका प्रमाण है। हैरिस सत्ता में आई तो मानवाधिकारों की विवादित अमरीकी व्याख्या पर आलोचनात्मक टीका-टिप्पणी भारतीयों को यदाकदा निराश कर सकती है, लेकिन ट्रंप का बड़बोलापन और उनकी अप्रत्याशित शासन शैली भी कम चिंताजनक नहीं है। हालांकि भारत-अमरीका संबंधों में आई मिठास कमोबेश जारी रहने की आशा है क्योंकि भारत को रणनीतिक साझेदार और चीन को रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी के तौर पर देखा जा रहा है।
— विनय कौड़ा

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