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आंदोलनों में क्यों है पुलिस निशाने पर?

Published: Jul 30, 2017 10:45:00 pm

शासन व्यवस्था में पुलिस की भूमिका अहम है। विभिन्न मांगों को लेकर
आंदोलनों के दौरान पुलिस की तैनाती काफी संवेदनशील होती है। पुलिस
तात्कालिक शांति व्यवस्था तो बहाल कर सकती है

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डॉ.महेश भारद्वाज टिप्पणीकार
शासन व्यवस्था में पुलिस की भूमिका अहम है। विभिन्न मांगों को लेकर आंदोलनों के दौरान पुलिस की तैनाती काफी संवेदनशील होती है। पुलिस तात्कालिक शांति व्यवस्था तो बहाल कर सकती है, लेकिन राजनीतिक मसलों का हल राजनीतिक चातुर्य से ही निकलना चाहिए। पुलिस को अति उत्साह में प्रतिक्रिया से परहेज ही करना चाहिए…


पिछले कुछ बरसों से हमारे देश में हो रहे विभिन्न आंदोलनों में पुलिस और आंदोलनकारियों के बीच जमकर टकराव की घटनाएं देखने में आई हैं। हाल ही में दिल्ली सहित देश के कई शहरों में ‘नॉट इन माय नेम’ के नाम से विरोध प्रदर्शन हुए हैं। इन्हें देखकर लगता है कि समाज मे विरोध प्रदर्शन करने वालों की एक खासी तादाद है जिनकी अपनी कोई विचार धारा हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती। कुछ लोग तो विरोध करने के मुद्दे ही ढूंढते रहते हैं।

विरोध की स्थिति में सरकार और आंदोलनकारियों के बीच पुलिस का आना तो स्वाभाविक है लेकिन आंदोलनकारियों के निशाने पर पुलिस का आना चिंताजनक है। पुलिस की जिम्मेदारी भी है कि वह समाज में होने वाली तमाम गतिविधियों पर नजर रखें और हालात को काबू में बनाए रखें। परंपरागत तौर पर पुलिस के प्रमुख कार्यों में अपराधों की रोकथाम, समाजकंटकों की धरपकड़ और शांति व्यवस्था बनाए रखना आते हैं।

जब अंग्रेजों ने हिंदुस्तान में पुलिस बल की स्थापना की थी तो यहां व्यवस्था बनाए रखना उनके लिए प्रमुख चुनौती थी। अपराधियों से निपटना उनकी प्राथमिकता नहीं थी। उन्हें तो अंग्रेजी हुक्मरानों के खिलाफ उठ रही आवाजों को दबाने के लिए एक सशक्त पुलिस बल चाहिए था। 1947 में देश विभाजन से उत्पन्न हालातों के कारण अंग्रेजों की इसी पुलिस प्रणाली को वर्ष 1861 के पुलिस एक्ट के साथ स्वतंत्र भारत में भी लागू कर लिया गया।

जब पुलिस प्रणाली में सब कुछ अंग्रेजों के जमाने वाला ही लागू रहा तो जाहिर है पुलिस संस्कृति भी वही रहनी थी। भारतीय पुलिस आज भी अपराधों पर कम और बंदोबस्त पर ज्यादा समय खपाती है। सवाल यह है कि जब भी व्यवस्था और विरोध करने वालों के बीच टकराव होता है तो पुलिस निशाने पर क्यों आ जाती है? और तो और, व्यवस्था के खिलाफ लग रहे नारों की जगह ‘पुलिस हाय-हाय’ के नारे लगने लग जाते हैं।

यहां दो बातें हैं- एक तो हमें यह समझना होगा कि संविधान ने समाज में शांति और व्यवस्था बनाए रखने का काम पुलिस को सौंपा है और पुलिस से यह काम दक्षता के साथ करने की अपेक्षा की जाती है। अर्थात, देश में कानूनों की अनुपालना करवाने का काम पुलिस का है। चूंकि कानून के शासन की रक्षा का काम पुलिस के हाथ में दिया गया है, इसलिए तो हमने अक्सर लोगों को आंदोलनकारियों को यह नसीहत देते देखा है कि वे कानून को अपने हाथ में न लें।

यानी कि पुलिस के पास ही रहने दें। जब कोई भीड़ कानून हाथ में लेने का प्रयास करती है तो पुलिस का निशाने पर आना स्वाभाविक है। दूसरी बात, पुलिस की कार्यप्रणाली से संबंधित है, जो सदियों से चली आ रही है। कभी-कभी पुलिस भी अति उत्साही होकर प्रतिक्रिया कर बैठती है और आलोचना का शिकार बन जाती है। चाहे किसान आंदोलन हो, आरक्षण आंदोलन हो या फिर अलगाववादियों से मुकाबले का वक्त, कुछ भी ऊंच-नीच हो जाए तो ठीकरा पुलिस के सिर ही फूटता है।

ऐसे में तबादले और निलंबन की तो बात ही छोडि़ए, पुलिसकर्मियों पर मुकदमे तक दर्ज हो जाते हैं। यहां पुलिस नेतृत्व की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। हमें समझना होगा कि राजनीतिक मसलों के हल राजनीतिक स्तर पर ही निकलते हैं। पुलिस को अकारण इनमें नहीं पडऩा चाहिए। पुलिस को अपना काम शांति व्यवस्था बनाए रखने तक ही रखना चाहिए। वैसे भी भारतीय नौकरशाही से तटस्थ रहने की अपेक्षा की जाती है।

राजनीतिक दलों में सत्ता परिवर्तन से इन्हें अपनी निष्ठाएं नहीं बदलनी चाहिए। जहां तक बरसों से चली आ रही पुलिस संस्कृति को बदलने और पुलिस सुधारों की बात है तो इस ओर समय -समय पर देश और पुलिस नेतृत्व का ध्यान जाता रहा है। पिछली सरकारों ने पुलिस सुधार के नाम पर कई आयोग बनाए। इमरजेंसी के दौरान देश भर में जिस तरह से पुलिस का इस्तेमाल हुआ तो सत्ता में आई जनता पार्टी ने सरकार बनाते ही 1977 में पुलिस प्रणाली में बड़े सुधार लाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय पुलिस आयोग बना डाला।

कई राज्य सरकारों ने भी अपने स्तर पर ऐसे प्रयास किए। इन आयोगों की रिपोर्टों पर ज्यादा कुछ हुआ नहीं। विभिन्न प्रदेशों के पुलिस नेतृत्व ने भी अपने स्तर पर काफी कोशिश कर विरासत में मिली पुलिस संस्कृति को बदलने की कोशिश भी की। देश की राजधानी दिल्ली में ऐसे प्रयासों की फेहरिस्त लंबी रही है। लेकिन ये प्रयास सांकेतिक बदलाव ही ला पाए। हमें समझना होगा कि एक तो पुलिस के पास पर्याप्त संख्याबल नहीं है और जो है उसका बहुत बड़ा हिस्सा बंदोबस्त और बड़े लोगों की सुरक्षा मे लगा रहता है।

ऐसे में अपराध और अपराधियों पर पूरी तरह कैसे ध्यान दिया जा सकता है। वीवीआईपी की सुरक्षा भी जरूरी है और समाज में शांति व्यवस्था बनाए रखने की भी, लेकिन हमें देश में तेजी से बढ़ रहे अपराधों को लेकर आंख बंद नहीं कर लेनी चाहिए। यह समझ लेना चाहिए कि सरकारों की ओर से किए जा रहे सुधारों का कोई भी एजेंडा पुलिस सुधारों पर ध्यान दिए बिना अधूरा ही रहेगा। पुलिस यूं तो राज्य सरकारों का विषय है, लेकिन देशहित में यह जिम्मा केंद्र सरकार को ही उठाना पड़ेगा।

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