ये हाल तब हैं, जब बीते पांच वर्षों से देश में चुने हुए सौ शहरों को हर नजरिए से स्मार्ट बनाने की मुहिम चल रही है। सवाल है कि क्या सिर्फ एक महामारी संसाधनों व बेहतरीन इंफ्रास्ट्रक्चर से लैस और रोजगार से लेकर शिक्षा-स्वास्थ्य के लिए रोल मॉडल माने जा रहे हमारे शहरों को इस कदर पैदल कर सकती है। या फिर कहीं ऐसा तो नहीं है कि कोविड-19 ने शहरों की उन तमाम बीमारियों को एक झटके में उजागर कर दिया है, जो करप्शन, लापरवाही और अधकचरे विकास के कारण लाइलाज हो चुकी हैं।
निश्चित ही शहरों की बर्बादी की ये दो अहम वजहें हैं, लेकिन यह किस्सा यहीं खत्म नहीं हो जाता है। कोई महामारी इतनी विकट हो तो संसाधनों का कम पड़ना लाजिमी है, न्यूयॉर्क से लेकर लंदन तक में यही दिखाई दे रहा है। लेकिन इसी दुनिया में शहर और भी हैं। उन शहरों में हमें ना तो कामगारों की भगदड़ के ऐसे दृश्य दिखे और ना ही ऐसी खबरें मिलीं कि अस्पतालों में कोविड-19 के मरीजों को इतनी लापरवाही के साथ मरने के लिए छोड़ दिया गया है, जैसी सूचनाएं इधर कुछ ही दिन पहले राजधानी दिल्ली में मिलीं। समझना होगा कि हमारे शहरों में दिख रही इस तबाही की जड़ें गहरी हैं और काफी अरसे से यहां पैठ जमाए हुए हैं।
करीब सवा दशक पहले 2007 में दिल्ली में आयोजित हुई एक कॉन्फ्रेंस – इंटरनेशनल नेटवर्क फॉर ट्रेडिशनल बिल्डिंग, आर्किटेक्ट एंड अर्बेनिज्म (आईएनटीबीएयू) में शामिल हुए शहरी योजनाकारों, विशेषज्ञों ने इसी मर्ज पर उंगली रखी थी। वे सभी इस पर एकमत थे कि बिना सोचे-समझे शहरों को ऊंची इमारतों और ग्लास टावरों से घेरना असल में एक किस्म का ‘राक्षसी और अमानवीय’ चलन है जो किसी रोज शहरों को ले डूबेगा। उस वक्त वायरस से पैदा हुई महामारी का कोई संकट उनके सामने नहीं था, पर संसाधनों पर पड़ने वाले बेहिसाब दबाव के अंदाजे लगाते हुए उन्होंने यह जरूर कहा था कि अगर ख्वाहिश भविष्य के शहरों के निर्माण की है, तो हमें अतीतकी ओर देखना चाहिए, जब लोग जमीन पर बने एक ही तल वाले मकानों में थोड़ादूर-दूर रहते थे।
हम इस तथ्य की अनदेखी नहीं कर सकते कि ज्यादातर भारतीय शहरों को कितने खराब ढंग से बसाया गया है। उन्हें जिस बेतरतीबी से बढ़ने की छूट दी गई, उसी का नतीजा आज कोरोना के भयानक प्रकोप के रूप में सामने है। अब तक ये शहर दो तरीके से बढ़े हैं। एक तो पहले से बसे इलाकों के भीतर ही भीतर और तंग होती गलियों और परस्पर सटते (छतों की ओर से देखें तो एक दूसरे में घुसते हुए) मकानों में लोगों की भीड़ जमा होती गई। बेहद सीमित आय वाले ये वैसे लोग थे और हैं, जो व्यवस्थित इलाकों में किराये पर या खुद के मकान- फ्लैट में नहीं रह सकते।
दूसरा समाज वह है जो जमीन की कमी के कारण शहर से दूर इलाकों में बनी बहुमंजिली इमारतों में रहने लगा है। इन दोनों ही कारणों से हमारी सामाजिकता और सामुदायिकता की अवधारणा को गहरा आघात लगा है। खास तौर से बहुमंजिले विकास की उस अवधारणा से जिसके बारे में एक मशहूर विचारक लियॉन क्रेअर ने यह तक कहा कि तीन मंजिल से ज्यादा ऊंची इमारतें बनाना भावी सोच का परिचायक नहीं है। इससे ज्यादा ऊंची इमारतें न तो सुविधाजनक कही जा सकती हैं और न ही वे समाज के निर्माण में सहायक हो सकती हैं। शहरी नियोजन को लेकर तकरीबन सारे सुलझे हुए योजनाकार इस पर एकमत हैं कि सिर्फ ऊंची इमारतें बनाने भर से काम नहीं चलता, बल्कि इसके लिए समूचा इंफ्रास्ट्रक्चर वैसा ही बनाना पड़ता है, जैसा पश्चिम में है। यह नहीं हो सकता कि शहरों की आबादी और इमारतों की ऊंचाई तो सतत बढ़ती रहे, पर खास तौर से अस्पताल, बिजली, पानी, सड़क और परिवहन की व्यवस्थाएं जस की तस लचर बनी रहें। इससे तो और बड़ा विरोधाभास पनपेगा और ऐसा बेढंगा विकास हमें ले डूबेगा। अफसोस कि ये परिणतियां आज हमारे सामने प्रत्यक्ष घटित हो रही हैं। अच्छा हो कि समाज और सरकार के योजनाकार मिल-बैठकर इस बारे में सोचें कि कैसे शहरों को उन तमाम मर्जों से निजात दिलाई जाए, जो उसकी नसों में बैठ गए हैं और एक नहीं, असंख्य महामारियों की वजह बन गए हैं।