दुनिया के लिए गंगा एक नदी है पर भारतीय परंपराओं में गंगा को देवी माना गया है। दुनिया में शायद ही किसी नदी को इतना सम्मान प्राप्त हो कि उसके दर्शन मात्र को किसी तीर्थयात्रा के पुण्य के बराबर माना जाए। वाल्मीकि रामायण में वर्णन है कि जब वनवास के दौरान राम, सीता और लक्ष्मण ने गंगा नदी को पार किया तो स्वयं सीता ने गंगा नदी की स्तुति करते हुए कहा था - 'हे सौभाग्यकारिणी देवी, वन से कुशलतापूर्वक लौटने पर मैं अपने संपूर्ण मनोरथ से आपकी पूजा करूंगी।' स्कंदपुराण के काशी खंड में गंगा की महिमा का वर्णन करते हुए कहा गया है - 'इस त्रिलोक में जितने भी तीर्थ और पुण्यक्षेत्र हैं, सर्वत्र जो धर्म और यज्ञ हैं, देवताओं के जो गण हैं, समस्त पुरुषार्थ तथा जितनी भी शक्तियां हैं - इस गंगा नदी में सूक्ष्म रूप से उपस्थित रहा करते हैं।'
गंगा के साथ अनेक पौराणिक आख्यान जुड़े हैं। महाभारत के अनुसार गंगा ही भीष्म की माता थीं। काका कालेलकर ने कहा है कि 'गंगा कुछ भी न करती, सिर्फ देवव्रत भीष्म को ही जन्म देती तो भी आर्यजाति की माता के तौर पर प्रतिष्ठित होती।' गंगा अपने भक्तों के प्रति सदा कृपालु रही है। गंगा से जुड़े किस्से कर्म और संकल्प की शुचिता की प्रेरणा देते हैं। कहते हैं कि भक्त रैदास एक बार अपने घर के बाहर बैठे हुए काम कर रहे थे। पास में एक ही छोटा-सा पात्र, जिसे कठौती कहा जाता है, रखा था। कुछ साधुओं का दल उधर से गुजरा और उन्होंने रैदास से कहा कि क्या वे गंगास्नान के लिए उनके साथ चलना पसंद करेंगे। रैदास ने सहजता से कह दिया - 'मन चंगा तो कठौती में गंगा।' इस पर साधुओं ने रैदास का उपहास किया और कहा कि इस कठौती में रखा जल तो एक व्यक्ति की प्यास भी नहीं बुझा सकेगा। गंगा इसमें कहां से समा सकेगी? रैदास ने अपने विश्वास का परीक्षण करने का प्रस्ताव रखा और साधुओं के उस दल को उस छोटे-से पात्र से ही पानी पिलाना शुरू किया। कहते हैं कि सब साधुओं ने छक कर पानी पी लिया लेकिन कठौती में पानी की धार अविरल बनी रही। लोक विश्वास है कि गंगा एक स्नेहसिक्त माता की तरह अपने भक्तों की इच्छा पूरी करती है। इसीलिए तो अंतिम समय में जब गंगालहरी के रचनाकार जगन्नाथ ने उनके अंक में समाने की इच्छा जताई तो गंगा स्वयं घाट की सीढिय़ां चढ़कर उनसे भुजभेंट करने पहुंच गई। इस चमत्कार को सैकड़ों लोगों ने देखा।
गंगा ही क्यों, हर नदी संपूर्ण मानवता के प्रति स्नेह भाव से पूरित है। यही कारण है कि भारतीय परंपराओं में नदियों को मां का दर्जा दिया गया है। गंगाजल के प्रति तो लोगों में इतनी श्रद्धा है कि यह माना जाता है अंतिम समय किसी के मुंह में दो बूंद गंगाजल हो तो उसे बैकुण्ठ की प्राप्ति होती है। पश्चिमी वैज्ञानिकों ने कुछ समय पहले गंगाजल का रासायनिक परीक्षण किया और पाया कि उसमें अनेक रोगों को दूर करने वाले लवण और खनिजों का योग है। लेकिन गंगा नदी भी मानव के स्वार्थी स्वभाव की शिकार हुई है। अनेक स्थानों पर गंगा इतनी प्रदूषित हो गई है कि उसका जल सामान्य उपयोग के लायक भी नहीं रहा। यह पीड़ा भारत की अधिकांश नदियों की है। जिस गंगाजल के बारे में यह माना जाता था कि उसमें स्नान करने मात्र से मनुष्य के पापों का क्षय होता है, वही गंगाजल अपने प्रवाह के अनेक स्थानों पर अपनी शुचिता के लिए संघर्ष कर रहा है।