ऐसा नहीं है कि इस गौरवपूर्ण नौकरी को लेकर आकर्षण की कमी हो गई है लेकिन हकीकत यह है कि जीवन की कठिन सच्चाई लोगों को अब दिखाई पडऩे लगी है। यह एक बड़ा कारण कहा जा सकता है। एक जमाना हुआ करता था जबकि राजा-महाराजाओं या जो शाही खानदान से हुआ करते थे, उनमें से ज्यादातर लोग फौज में जाया करते थे और खुद को गौरवान्वित महसूस किया करते थे। लेकिन, राजनेताओं के खानदान से कितने लोग फौज में जाना पसंद करते हैं? गिनती के होंगे ऐसे राजनेताओं के परिवार, जिनके सदस्य फौज में जाते हैं। मेरा मानना है कि अगर नेता हैं, फौज के लिए भी तो परिवार से लोगों को भेजें। यहां भी तो दिखाएं नेतृत्व का जलवा।
हकीकत यही है कि इस नौकरी का कठिन जीवन और समाज में निरंतर गिरते स्तर ने ऐसी परिस्थितियों को उत्पन्न कर दिया है। इसका यह अर्थ नहीं है कि समाज में सेना में काम करने को अपमानजनक समझा जाता है बल्कि इस देश की जनता में सेना को लेकर पर्याप्त आदर का भाव है और समय-समय पर इस आदर के उदाहरण भी देखने को मिलते रहते हैं। सरकार की मंशा पर भी संदेह करना ठीक नहीं है क्योंकि उसकी ओर से सेना को बहुत कुछ देने की कोशिश की गई है। इसके बावजूद सेना के लोग अब संतुष्ट नहीं हैं।
इस बात को फिर समझने की जरूरत है कि उन्हें जो मिला, उससे वे इसलिए असंतुष्ट हैं क्योंकि नौकरशाही में उनकी क्षमता के समकक्ष लोग तुलनात्मक दृष्टि से अधिक लाभ में रहते हैं। जब मैं समाज में निरंतर गिरते स्तर की बात करता हूं तो उसका आशय यही है कि गैर सैन्य अधिकारी पद या कहें पैरा मिलिट्री के पदों को लेकर जो पूर्व की स्थिति थी, उसमें अब काफी अंतर आ गया है। उदाहरण के तौर पर किसी प्रदेश के पुलिस विभाग के मुखिया (पुलिस महानिदेशक) का पद थल सेना के मेजर जनरल के पद के समकक्ष समझा जाता था।
उत्तर प्रदेश का ही उदाहरण लें। आज उत्तर प्रदेश में 26 पुलिस महानिदेशक हैं। उनके नीचे कई अतिरिक्ति पुलिस महानिदेशक और फिर उनके नीचे पुलिस महानिरीक्षक हैं। स्थिति यह हो गई पुलिस के मुखिया के पद की बजाय मेजर जनरल की रैंक को पुलिस महानिरीक्षक के समकक्ष माना जाने लगा है। यह सेना के मेजर जनरल पद के गिरते सामाजिक स्तर का ही ***** है। पूर्व में अंग्रेजों ने जो व्यवस्था बनाई थी, उसमें बदलाव होने शुरू हुए। ये बदलाव नौकरशाहों ने ऊपर के पदों पर अपने मुताबिक किए। नौकरशाही में देखिए कि पूर्व में किसी विभाग का मुखिया सचिव होता था जो पहले नंबर का पद हुआ करता था और दूसरे नंबर का पद संयुक्त सचिव हुआ करता था।
पूर्व में नौकरशाही के इस दूसरे नंबर के पद के समकक्ष था सेना के मेजर जनरल का पद। लेकिन, बाद में नौकरशाही के पदों का पुनर्गठन हुआ। संयुक्त सचिव के ऊपर अतिरिक्त सचिव, उसके ऊपर विशिष्ट सचिव, फिर प्रमुख सचिव और उसके ऊपर केबिनेट सचिव का पद आ गया। मेजर जनरल का पद अब भी सेना में वरिष्ठता के लिहाज से तीसरे नंबर का ही पद रहा। समझने वाली बात यह है कि सेना में सम्मान को बहुत महत्व दिया जाता है। जरा सोचिए कि सेना का एक वरिष्ठ अधिकारी रक्षा मंत्रालय में आता है और उसे बाबुओं के आगे अपने काम के लिए चक्कर लगाने पड़ते हैं, वह उसके लिए काफी अपमानजनक होता है।
सैन्य अफसर को लगता है कि गैर सैन्य पदों पर उसके समकक्ष रहे या समान क्षमता वाले लोगों को समय पर पदोन्नति और अन्य लाभ मिलते जा रहे हैं और सेना में ऐसा बिल्कुल भी नहीं हो पा रहा है। इन हालात में असंतुष्ट होकर सैन्य अफसर अन्यत्र बेहतर अवसर पाने के लिहाज से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का विकल्प चुनते हैं। दरअसल, हमारे देश में नौकरशाही का बहुत बड़ा जाल बिछा हुआ है। वे यदि नियम बनाते हैं तो नियम बनाने वाली समिति में वे ही बैठे होते हैं। यह नैसर्गिक न्याय के विरुद्ध है। लेकिन, स्थितियां ऐसी हैं कि आजकल सरकार ‘ बाई द आईएएस, फॉर द आईएएस और ऑफ द आईएएस’ है।
मैं यह नहीं कहता कि आईएएस योग्य नहीं बल्कि मेरा कहना है कि अन्य लोगों में भी तो योग्यता है। उसी लिहाज से उन्हें पारिश्रमिक व सम्मान मिलना चाहिए। आज सबसे ज्यादा मुश्किल में रहने का जो जीवट दिखा रहे हैं वे सियाचिन में रहकर देश की सुरक्षा की जिम्मेदारी निभाने वाले लोग हैं। इन आईएएस को एक महीने के लिए सियाचिन में काम करवा कर देखें या एक वर्ष के लिए सेना में कार्य को अनिवार्य बनवा दें, ताकि यह समझ में तो आए कि सेना के अफसर क्यों सम्मान के पात्र हैं। यदि उन्हें यथोचित सम्मान व आर्थिक लाभ नहीं मिलेगा को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति जैसी स्थितियां परिलक्षित होती रहेंगी।