दरअसल, अंग्रेजों के समय शुरू किए गए इस राजद्रोह कानून को लेकर पूरे देश में अब एक बहस खड़ी हो गई है। बहस इस बात को लेकर है कि क्या लोकतांत्रिक देश में इस तरह का कानून होना चाहिए। इस तरह के कानून में किसी के खिलाफ कार्रवाई करने से पहले जांच क्यों नहीं होनी चाहिए। खासकर तब जबकि मामले में सीधे तौर पर राजनीति नजर आ रही हो। देश में सत्ताधारी पार्टियों पर इस धारा के दुरुपयोग के आरोप पहले भी लगते रहे हैं। शुुरुआत में केंद्र सरकार ने इस कानून को खत्म नहीं किए जाने की दलील दी थी और यहां तक कहा था कि कोर्ट को संविधान पीठ का फैसला नहीं बदलना चाहिए। लेकिन, देश में इसको लेकर शुरू हुई बहस के बाद सरकारी पक्ष भी लचीला हो गया है। यही वजह है कि अब की बार केंद्र सरकार ने भी इस कानून पर संयमित दलील दी। सुप्रीम कोर्ट में सरकारी वकील के तौर पर सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि संज्ञेय अपराध के तौर पर इसमें मामला दर्ज करने से नहीं रोका जा सकता है, लेकिन मामला दर्ज होने से पहले एक जिम्मेदार अधिकारी की जांच पूरी होना जरूरी है।
दरअसल, यह कानून राज्य और केंद्र सरकारों को विवेकाधीन अधिकार देता है। मतलब वह किसी पर भी सरकार के खिलाफ असंतोष फैलाने, नफरत फैलाने से लेकर अवमानना का मामला बना सकती है, सीधी गिरफ्तारी कर सकती है और उस पर कोर्ट में अपील का अधिकार भी नहीं मिलता है। ऐसे में यह कानून अंग्रेजों के कानून से अलग नहीं रह जाता है। सुप्रीम कोर्ट पहले भी कई बार कह चुका है कि सरकार की आलोचना या प्रशासन के खिलाफ टिप्पणी मात्र से राजद्रोह का मुकदमा नहीं बन सकता। माना जा रहा है कि आने वाले वक्त में सरकारों के इन बेजा अधिकारों पर लगाम जरूर कसेगी।