किसी भी तरह के आंदोलन के दौरान हिंसा-तोड़फोड़ व आगजनी जैसे मामलों में मुकदमे वापसी को किसी भी सूरत में उचित नहीं कहा जा सकता। सरकारों को जनता को इस बात का भी जवाब देना चाहिए हिंसा के चलते हुए जान-माल के नुकसान की भरपाई कौन करेगा? और सवाल यह भी कि मुकदमे वापस ही लेने हैं तो सालों तक इनकी जांच व न्यायिक प्रक्रिया में जनता के धन की बरबादी क्यों की गई? यह मामला सिर्फ गुजरात का ही हो ऐसा भी नहीं है। उत्तरप्रदेश में अपने पहले कार्यकाल में जब योगी आदित्यनाथ की ताजपोशी हुई थी, तब उन्होंने खुद पर दर्ज मुकदमों समेत भाजपा नेताओं के पांच हजार मुकदमे वापस लिए थे। इससे पहले अखिलेश यादव ने भी अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं के खिलाफ तीन हजार मामले वापस लिए थे। मध्यप्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, महाराष्ट्र में भी ऐसे उदाहरण हैं। सरकारें अदालत में कारण सहित मुकदमे वापस लेने का आवेदन देती हैं। उल्लेखनीय है कि ज्यादातर मामलों में सरकारों से कारणों पर सवाल-जवाब के बिना आवेदन मंजूर कर लिए गए।
संतोष की बात यह जरूर है कि पिछले साल अगस्त में उत्तरप्रदेश के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद अब विधायकों व सांसदों के मामले वापस लेने से पहले हाई कोर्ट की इजाजत अनिवार्य हो गई है, अन्यथा इससे पहले तो सभी के लिए छोटी अदालतों से ही व्यवस्था मिल रही थी। राजनीतिक द्वेष के चलते झूठे-सच्चे मुकदमे दर्ज करने और फिर अपने लाभ के लिए बिना मेरिट के इन्हें वापस लेने की प्रवृत्ति पर रोक लगनी ही चाहिए। चाहे सरकार किसी भी दल की हो, किसी को भी कानून का मखौल उड़ाने और इसे अपने हित के लिए इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं मिलनी चाहिए।
संतोष की बात यह जरूर है कि पिछले साल अगस्त में उत्तरप्रदेश के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद अब विधायकों व सांसदों के मामले वापस लेने से पहले हाई कोर्ट की इजाजत अनिवार्य हो गई है, अन्यथा इससे पहले तो सभी के लिए छोटी अदालतों से ही व्यवस्था मिल रही थी। राजनीतिक द्वेष के चलते झूठे-सच्चे मुकदमे दर्ज करने और फिर अपने लाभ के लिए बिना मेरिट के इन्हें वापस लेने की प्रवृत्ति पर रोक लगनी ही चाहिए। चाहे सरकार किसी भी दल की हो, किसी को भी कानून का मखौल उड़ाने और इसे अपने हित के लिए इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं मिलनी चाहिए।