लौटना होगा परम्परागत खेती-बाड़ी की ओर
भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति (बीपीकेपी) में अब तक 509.44 करोड़ रुपए व्यय कर 8 राज्यों में 4.09 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को प्राकृतिक कृषि के लिए चुना जा चुका है। राज्यों को नदियों, पहाडिय़ों और आदिवासी क्षेत्रों को प्राथमिकता से इसमें शामिल करने को कहा जाएगा।
Published: August 05, 2022 07:42:22 pm
नरेन्द्र सिंह तोमर
केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्र कि सानों की जय कहने वाले भारत देश में खेती-किसानी के हित को लेकर आजादी के पिचहत्तर सालों में बातें तो खूब हुईं पर धरातल पर उनका असर कम ही दिखाई दिया। जहां सरकारों को किसानों का हित करना था वहां देखा गया कि सुधार के नाम पर लागू नीतियों व साधनों से हमारी परंपरागत खेती को ही नष्ट कर दिया गया। हमारा देश सोने की चिडिय़ा और विश्व गुरु कहलाता था। विश्व गुरु का संबोधन इसीलिए था क्योंकि हमारे पास अनुभवजनित ज्ञान के साधन व सूत्र थे। खेती-किसानी के भी अपने तरीके थे। खेती के तरीकों और मौसम को पढऩे के दोहे-कहावतें व देशज अनुभव भी रहे हैं। जैसे-जैसे हम इस समृद्ध परंपरा से दूर होते गए, हमारी कृषि भी पहचान खोती गई। हरित क्रांति ने हमें सर्वाधिक उपज का श्रेय दिया है, तो रासायनिक खेती के दुष्प्रभाव भी छोड़े हैं।
एक समय हमें उपज बढ़ाने के लिए रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल करना पड़ा। उपज तो बढ़ी लेकिन अब पता चल रहा है कि रसायनों के असंतुलित उपयोग से धरती बंजर होती जा रही है। अज्ञानता में किसान रसायनों का बेतहाशा इस्तेमाल कर रहे हैं। समय आ गया है कि हम परंपरागत खेती की तरफ जाएं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब 'खेती को रसायन प्रयोगशाला से निकालकर प्रकृति की प्रयोगशाला से जोडऩे की आवश्यकता हैÓ का आह्वान करते हैं तो यह वास्तव में भारतीय कृषि के भविष्य का ध्येय वाक्य है। यों तो केंद्र सरकार ने घातक रसायन प्रतिबंधित भी किए हैं। लेकिन हमें जागृति भी बढ़ानी होगी। तय सीमा से अधिक मात्रा में रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों के इस्तेमाल को हतोत्साहित करना होगा। यह हमारी उस परंपरागत खेती की ओर लौटने का सही समय प्रतीत होता है जिसे भारतीय कृषि पद्धति कहते हैं।
ऐसा भी नहीं है कि हमें एक साथ ही तरीका बदलना है। अपने क्षेत्र का एक हिस्सा लें और प्रयोग करें। फायदा मिले तो इसे और आगे बढ़ाएं। इसी दृष्टिकोण के साथ आजादी के अमृत महोत्सव में हर पंचायत के कम से कम एक गांव को प्राकृतिक खेती से जोडऩे का लक्ष्य रखा गया है। रासायनिक खेती का आधार रसायन हैं, वहीं प्राकृतिक खेती के चार स्तम्भ हैं द्ग जीवामृत, बीजामृत, आच्छादन और व्हापासा। इसमें इस्तेमाल होने वाली चीजें भी प्राकृतिक होती हैं जैसे द्ग गाय का गोबर, गोमूत्र, बेसन, गुड़ आदि। इनसे खाद, मिट्टी की उर्वरक क्षमता और बीज संरक्षण को बेहतर करने में मदद मिलती है। जबकि यह तथ्य अनुभवसिद्ध है कि रासायनिक खेती धरती और मानव के जीवन में जहर घोल रही है।
समय के साथ प्राकृृतिक खेती की अन्य पद्धतियां भी विकसित हो रही हैं। मानसून पूर्व की सूखी बुवाई, हरी खाद और फार्म यार्ड (एफवाइएम), वर्मी-कम्पोस्ट आदि का उपयोग जैसे नवाचारों ने प्राकृतिक खेती पर विश्वास बढ़ाया है। इस कार्य में कृषि विज्ञान केन्द्रों और कृषि विश्वविद्यालयों जैसे संस्थानों की महती भूमिका होगी। कृषि एवं किसान कल्याण विभाग ने प्राकृतिक खेती को वर्ष 2019 से ही समर्थन देना शुरू कर दिया।
पीएम की मंशा के अनुरूप बजट-2022 में तय किया गया है कि देश में प्राकृतिक खेती (एनएफ) को बढ़ावा दिया जाएगा। पहले चरण में गंगा नदी के किनारे पांच किलोमीटर चौड़े गलियारों में किसानों की भूमि पर ध्यान दिया जाएगा। प्राकृतिक खेती करने वालों की पहचान चैंपियन किसानों के रूप में कर उन्हें प्रेरक बनाया जाएगा। खुशी इस बात की है कि प्राकृतिक एवं ऑर्गेनिक खेती से उपजे उत्पादों की मांग भी बढ़ रही है। इसके दाम भी ज्यादा मिलते हैं। पढ़े-लिखे युवा आइटी सेक्टर की नौकरियां छोड़, विदेशों से लौटकर प्राकृतिक खेती की तरफ आकर्षित हो रहे हैं।
सही मायने में आज खाद्यान्न संकट से जूझ रही दुनिया के लिए भारत आशा का केन्द्र है। वह दिन दूर नहीं, जब हमारी प्राकृतिक खेती निर्दोष उपज प्रदान करेगी और इस तरह हम 'सर्वे सन्तु निरामयाÓ के ध्येय वाक्य के साथ 'सर्वे भवन्तु सुखिन:Ó का लक्ष्य पूर्ण कर पाएंगे।

लौटना होगा परम्परागत खेती-बाड़ी की ओर
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