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कामना

locationजयपुरPublished: Mar 30, 2020 05:19:50 pm

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Gulab Kothari

दुर्गा-अर्चना में इस विष्णु माया रूप को क्षुधा कहा गया है। क्षुधा का अर्थ भूख होता है। हम केवल शरीर की इस भूख को ही क्षुधा मान बैठते हैं।

Gulab Kothari

Gulab Kothari

– गुलाब कोठारी

‘या देवी सर्वभूतेषु क्षुधा रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:’॥

दुर्गा-अर्चना में इस विष्णु माया रूप को क्षुधा कहा गया है। क्षुधा का अर्थ भूख होता है। हम केवल शरीर की इस भूख को ही क्षुधा मान बैठते हैं। शरीर की भूख है भोजन, मन की भूख है सुख, बुद्धि की भूख है ज्ञान तथा आत्मा की भूख है मोक्ष। भूख का अर्थ है अभाव। बिना अभाव के अनुभव के कैसी इच्छा अथवा कामना! इच्छा के लिए ज्ञान पहली आवश्यकता है। बिना ज्ञान के इच्छा पैदा ही नहीं होती। ज्ञान आत्मा का पर्याय है। इच्छा मन में पैदा होती है, शरीर या बुद्धि में पैदा नहीं होती। अर्थात्-कामना में मन केन्द्र होता है तथा आत्मा इसका आधार होता है।

जीवन कामना से चलता है। मन में यदि कामना नहीं है, तो कर्म भी नहीं है। मन को कामना ही चलाती है। बल्कि मन को कामना ही पैदा करती है। कामना को मन का बीज कहा है-

‘कामस्तग्रे समवर्तताधि, मनसो रेत: प्रथमं यदासीत् ॥’

सृष्टि के आरंभ में ब्रह्म निष्काम है। माया के प्रकट होते ही कामना जाग्रत हो उठती है-‘एकोहं बहुस्याम्’। माया ही कामना है। यही ब्रह्म के जीवन का संचालन करती है। कामना पूर्ति के लिए संकल्पित होना ही तो बन्धन है। कामना ही फल की इच्छा है। कामना ही कर्ता भाव पैदा करती है। आत्मा को आवरित करके जीव को आगे करती है। कामना ही ब्रह्म को जीव बनाती है। सूक्ष्म से स्थूल का निर्माण होता है, यही सृष्टि है। इसका अर्थ यह भी है कि यह कामना जीवन की शक्ति है, यह किसी देवता का नाम नहीं है।

सृष्टि में कर्म है, गति है, किन्तु कामना ब्रह्म की है। क्षुधा ही कर्म की प्रेरणा है। क्षुधापूर्ति ही छाया है, तृष्णा है। माया के, शक्ति के अथवा पत्नी रूप स्त्री के दोनों रूप कार्यरत दिखाई पड़ते हैं। एक सृष्टि में प्रवृत्त और दूसरा अध्यात्म जनित निवृत्त भाव। क्षुधापूर्ति के साथ ही तृष्णा उसकी अधोगति का मार्ग है। पेट भर जाता है, मन नहीं भरता। यही तृष्णा है। शक्ति की प्राप्ति भी क्षुधापूर्ति ही है, किन्तु कुछ अच्छा करने को प्रवृत्त करती है। विरोधी गतिविधियों में लज्जा एकमात्र ऐसा कारण है जो व्यक्ति को सकारात्मक बनाए रखता है।

यहां हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि माया के तीन भाव (गुण) होते हैं-सत्व, रज, तम-जिनके अनुरूप मन में इच्छा उठती है-कर्म होता है और वैसा ही फल मिलता है। इन मन के भावों का नियंत्रण अन्न-ब्रह्म के द्वारा किया जाता है। अर्थात् सम्पूर्ण सृष्टि में माया के कार्य ब्रह्म की इच्छा से ही होते हैं। सत्व और रज माया के कर्मों की दिशाएं हैं। रज ही गति तत्त्व (यजु:) है। जिस प्रकार मन और वाक् (परिणाम) के मध्य प्राण होता है।

मानव जीवन में भी माया का स्वरूप कामना ही है। पत्नी कामना बनकर ही जीवन में प्रवेश करती है। सृष्टि विस्तार (ब्रह्म की) की निमित्त बनती है। बीज को वृक्ष का रूप प्रदान करती है। वृक्ष में नया बीज पैदा करने की क्षमता पैदा करती है। चूंकि आत्मा अमर है, अत: उसे मां-बाप पैदा नहीं करते। सृष्टि विस्तार के लिए शुद्ध आत्मा का यज्ञ के आरंभ में आह्वान करते हैं। पत्नी ही क्षुधापूर्ति का साधन बनती है, वही तृष्णा भी बन जाती है, तो शक्ति भी बन सकती है।

कामना दो प्रकार की होती है-एक, ईश्वर की तथा दूसरी, जीव की। ईश्वर की कामना कर्म फल के अनुसार आत्मा से पैदा होती है। इसके कर्म को चाहकर भी नहीं टाला जा सकता।

जन्म-मृत्यु-विवाह-संतान-रोग-दुर्घटना-मित्र-शत्रु आदि इसके क्षेत्र हैं। व्यक्ति की कामना उसके अहंकार का प्रतीक है। प्रकृति उसे एक निश्चित दिशा में जीने के लिए, एक निश्चित उद्देश्य और पृष्ठभूमि के साथ किसी परिवार में भेजती है। वैसी ही इच्छाएं उसके मन में उठती भी हैं। जब तक व्यक्ति अपने भीतर से जुड़ा रहता है, प्रकृति के साथ जीता है। ईश्वर ने कोई इंसान एक जैसे नहीं बनाए। प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय है। आज शिक्षा ने इस विशेषता को समाप्त करके सबको एकसा बना दिया, कारखाने के उत्पाद की तरह। अत: व्यक्ति की इच्छाएं जीवन में अधिक प्रभावी हो गईं। भीतर की कोई सुनता ही नहीं। स्वयं अपना ईश्वर बन बैठा।

आज कोरोना वायरस ने सबको बाहर जाने से रोक दिया। हम सबके पास भीतर जीने का अवसर है। हमें जीवन की दिशा, शक्तियों और कमजोरियों का आकलन कर लेना चाहिए। सबका जीवन बदल सकता है। ऊंचा उठ सकता है। सबके भीतर वही ईश्वर बैठा है। सभी शक्तिमान पुरुष हैं। सभी प्रकृति रूप शरीर भी हैं। अद्र्धनारीश्वर हैं। शक्ति के द्वारा ही पुरुष प्रकट होता है। स्त्री के भीतर भी वही एक पुरुष है। भीतर के चिंतन में हम शरीर के केन्द्र में अपने स्वरूप को पहचानने का, अपने स्वरूप या स्वभाव से परिचय करने का प्रयास करें।

एकान्त-शान्त स्थान में बैठकर कुछ समय के लिए कुछ न करें। ब्रह्म की तरह से निष्क्रिय हो जाएं। माया (शरीर-मन-बुद्धि) को भी शान्त होते देखना है। प्रयास कुछ भी नहीं करना है। शरीर पूर्ण शिथिल, श्वास मंद, विचार शान्त-शून्य। आप दर्शक मात्र। विचार आएंगे, आने दें-पकड़े नहीं-जाने दें। कुछ अभ्यास के बाद स्वत: ही ठहराव आने लगेगा। धीरे-धीरे भीतर का कचरा बाहर निकल जाएगा। तब आपका निजी स्वरूप-जो आप लेकर पैदा हुए तथा जिसमें आपका पूर्व जन्मों का ज्ञान सम्मिलित भी है, प्रकट होता चला जाएगा। नित्य नए-नए विचार सामने उभरेंगे। आपकी प्रकृति जितनी शान्त और नियंत्रण में रहेगी, आपका आत्म (ब्रह्म) स्वरूप प्रकाशित होता चला जाएगा। इस कोरोना के लॉकडाउन को वरदान में बदल सकते हैं। स्वर्णिम जीवन जीने का स्वर्णिम अवसर है। जीवन की चकाचौंध के पीछे की वास्तविकता का ज्ञान हो जाएगा। कोरोना चला जाएगा, हमारा प्रवाह भी क्षीर सागर की ओर मुड़ जाएगा। वेद वाक्य है कि जो हुआ, अच्छा हुआ, जो होगा, अच्छा ही होगा।

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