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तय करने होंगे नारी को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के पैमाने

locationजयपुरPublished: Aug 20, 2018 05:51:14 pm

कुछ महीनों पहले पॉप संगीत की देवी कही जाने वाली मैडोना की बेटी द्वारा अपने अंडरआर्म के बालों के साथ सोशल मीडिया पर पोस्ट की गई तस्वीर ने हड़कंप मचा दिया था।

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कुछ महीनों पहले पॉप संगीत की देवी कही जाने वाली मैडोना की बेटी द्वारा अपने अंडरआर्म के बालों के साथ सोशल मीडिया पर पोस्ट की गई तस्वीर ने हड़कंप मचा दिया था।

विश्व प्रसिद्ध अश्वेत लेखिका माया एंजलो की एक कविता “I know why caged bird sing”, जिसमें उन्होंने चिड़िया को आधार बनाकर स्त्रियों की स्थिति की ओर इंगित किया है, जिसमें भावार्थ यही है कि एक आजाद पंछी को अपनी आजादी कितनी अच्छी लगती है, वो खुशी के गीत गाता है, जिंदगी को खुशनुमा तरीके से जीता है, तब उसकी आवाज में खनक होती है, उसकी आवाज आत्मविश्वास से भरी हुई बुलंद होती है, लेकिन जब वो पिंजरे में कैद हो जाता है तो उसकी आवाज में कम्पन होता है, डर होता है, निराशा होती है, वो आजादी को तरसता हुआ बेबस लाचार हो जाता है।

कुछ महीनों पहले पॉप संगीत की देवी कही जाने वाली मैडोना की बेटी द्वारा अपने अंडरआर्म के बालों के साथ सोशल मीडिया पर पोस्ट की गई तस्वीर ने हड़कंप मचा दिया था। लोगों ने इस तस्वीर पर भद्दे कमेंट किये थे, लेकिन वो अपनी उस तस्वीर के साथ उतनी ही सहज थी,
जितना एक सुपर मॉडल मेकअप के साथ होती है। आजकल एक अमरीकी कम्पनी द्वारा बनाया हुआ विज्ञापन भी सुखिर्यों में है, जिसमें उन्होंने शरीर के बालों के साथ मॉडल की तस्वीरें साझा की हैं। सदियों से औरतों को देवी का दर्जा मिला है लेकिन देवी होने के भी पैमाने हैं,
रंग-रूप निर्धारित है, एक काया निर्धारित है, उसका आकार-प्रकार निर्धारित है। सबसे बड़ी बात कि चरित्र के भी मानक तय किये गये हैं। इतने सारे पैमानों के बीच हम स्त्रियाँ पैदा होती हैं, इसे अपनी नियति मानकर सारा जीवन इन्हीं के बीच व्यतीत कर देती हैं।

इसलिए सारी दुनिया सिर्फ गोरी चमड़ी, सुंदरता के लिए हर उपाय करती है। क्योंकि सुन्दर होना, कमनीय काया, गोरा रंग, स्निग्ध चमड़ी, अच्छा चरित्र हमारे लिए पत्थर की लकीर के पैमाने हैं। कैसे ये समाज इससे कम में महिलाओं को स्वीकार कर लेगा? उन्हें जीना भी तो इसी समाज में है, समाज के अनुसार नहीं चलेंगी तो उन्हें कोई स्वीकार नहीं करेगा, ये डर सदियों से स्त्रियों को पुरुष-प्रधान समाज का गुलाम बना रहा है। पश्चिम की महिलाएं आधुनिक वेशभूषा, आधुनिक विचारधारा, प्रगतिवाद के लिए सारे विश्व में आदर्श के तौर पर मानक के रूप में प्रतिष्ठित हैं, लेकिन अपने हिसाब से मानक तय करना उनके लिए इतना आसान भी नहीं था, जबकि पश्चिम पहले बहुत ही ज्यादा रुढ़िवादी रिवाजों से बंधा हुआ समाज था। नारीवाद और स्त्री की स्वतंत्रता की शुरुआत यूरोप में फ्रांस से हुई थी।

पुनर्जागरण के दौरान वहां की महिलाओं ने फ्रांस की क्रांति के दौरान घरों से बाहर निकलकर क्रांति में बराबर की भागीदारी की और अपने हक के लिए आवाज उठाई। फ्रांस में ये क्रांति गरीब तबके की महिलाओं द्वारा भोजन सामग्री की पर्याप्त आपूर्ति और समान अधिकारों की
मांग को लेकर शुरू की गई जिसकी तपिश क्रूर दमन चक्र से गुजरकर उच्च वर्ग की महिलाओं तक भी पहुंची। सभी वर्ग की महिलाओं ने इसमें अपनी सहभागिता दी। इंग्लैण्ड में भी स्त्रियों की दशा कुछ खास अच्छी नहीं थी। वे हर चीज के लिए पुरुषों पर निर्भर थीं, लैंगिक व सामाजिक अधिकारों की असमानता इंग्लैण्ड के समाज में व्याप्त थी, जिसके खिलाफ महिलाओं ने लंबी लड़ाई लड़ी। अमरीका में उच्चवर्गीय परिवार की दो बहनों ने गुलाम प्रथा के विरोध में जनजागरण की शुरुआत की, जो आगे चलकर पुरुषों के सामान अधिकार प्राप्त करने की लड़ाई में बदल गया। इन सभी नारीवादी आंदोलनों का मंतव्य सिर्फ स्वतंत्रता प्राप्त करना नहीं था वरन पुरुषों के समान कानूनी, सामाजिक, आर्थिक समानता प्राप्त करना था। पश्चिम के नारीवादी आंदोलनों की विशेषता ये रही थी कि उनका नेतृत्व महिलाओं ने ही किया।

भारतीय स्त्रियों को अपनी स्वतंत्रता की उपलब्धि सिर्फ आधुनिक कपड़ों, लेट नाईट पार्टीज, कुछ नारीवादी समर्थित जुलूसों में शिरकत में ही नजर आती है, लेकिन सही मायनों में ये स्वतंत्रता नहीं है। वे अभी भी उन्हीं रिवाजों में जकड़ी हुई हैं जो सही मायनों में उन्हें स्वतंत्र होने से रोकते हैं।भारत में नारीवाद को सामाजिक समर्थन हासिल करने के लिए अभी बहुत लंबा सफर तय करना होगा, तब जाकर भारत की नारी पश्चिम की नारी के स्वतंत्रता के मानकों को छू पाएगी। भारत में स्त्रियां आभासी रूप से स्वतंत्र हैं, लेकिन आंतरिक और सामाजिक रूप से अभी भी समाज की बंदी हैं, क्योंकि वे अभी तक व्यक्तिगत स्वतंत्रता के पैमाने निश्चित नहीं कर पाई हैं। यही उनकी सबसे बड़ी विफलता है।चाहे यूरोप हो या कोई अन्य विकसित, विकासशील या तीसरी दुनिया का देश, स्त्रियों को अभी भी कुछ मामलों में पूर्णत: सफलता नहीं मिल पाई है। “Me Too” कैम्पेन इसीलिए सदी का सबसे महत्वपूर्ण आंदोलन है जो कि स्त्रियों को एक नई दिशा की ओर ले जाएगा। हमारे आस-पास हो रही ये घटनाएं हमें ये सीख दे रही हैं कि स्त्रियों को अपनी स्वतंत्रता के पैमाने खुद बनाने होंगे। स्त्रियाँ जब तक देवी के दर्जे से, सुंदरता के मोह से बाहर नहीं आएंगी और साधारण होने में खुद को गौरवान्वित महसूस नहीं करेंगी, तब तक समाज के रिवाजों में कैद रहेंगी और स्वतंत्र होने का दावा करते हुए सामाजिक तौर पर कभी भी वो मुकाम हासिल नहीं कर पाएंगी जो मुकाम वे सदियों से सिर्फ ख्वाबों में देखती आई हैं।

-विरासनी बघेल
(ब्लॉग से साभार

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