scriptआधी आबादी: स्त्री को चाहिए स्वत्व, पहचान और अपना स्थान | Woman needs her identity in society | Patrika News

आधी आबादी: स्त्री को चाहिए स्वत्व, पहचान और अपना स्थान

locationनई दिल्लीPublished: Jul 26, 2021 10:43:28 am

युगों से औरत, उसके वजूद और उसकी देह को पितृसत्ता ने अपना उपनिवेश बना रखा है। इतनी आसानी से कहां स्वत्व मिलेगा, पर स्त्री को चाहिए वही। उसे अंतत: संसार में अपना वजूद चाहिए।स्त्री अब भी पितृसत्ता की उपनिवेश है।

आधी आबादी: स्त्री को चाहिए स्वत्व, पहचान और अपना स्थान

आधी आबादी: स्त्री को चाहिए स्वत्व, पहचान और अपना स्थान

सुदीप्ति, (समाज, सिनेमा, संस्कृति जीवन-शैली, शिक्षा आदि पर मुखर लेखन)

महादेवी वर्मा ने 1933 में लिखे एक निबंध में कहा, ‘हमें न किसी पर जय चाहिए, न किसी से पराजय; न किसी पर प्रभुता चाहिए, न किसी का प्रभुत्व। केवल अपना वह स्थान, वह स्वत्व चाहिए, जिसका पुरुषों के निकट कोई उपयोग नहीं है, परंतु जिनके बिना हम समाज का उपयोगी अंग बन नहीं सकेंगी।’ स्वत्व, अस्तित्व, पहचान और अपना स्थान- बस इतना ही। क्या अब तक स्त्रियों को यह मिल गया है? बतौर समाज आज हम महादेवी वर्मा की इस सामान्य-सी मांग पर खरे उतरते हैं? क्या परिवार, बिरादरी, समुदाय, समाज और राष्ट्र के लिए स्त्री का स्वायत्त अस्तित्व है? नहीं। वह उनके लिए महज एक वस्तु और प्रतीक है। सबसे पहले तो इज्जत की प्रतीक, फिर स्वामित्व के अहंकार की पहचान।

आए दिन अलग जाति-बिरादरी में विवाह के नाम पर या प्रेम-विवाह के नाम पर होने वाली ‘ऑनर किलिंगÓ पर आप सोचते नहीं हैं कि किस सम्मान के लिए यह हत्या है? कौन है सम्मान का प्रतीक? हाल की खबर थी- एक बेटी अपने से नीची मानी जाने वाली किसी जाति के लड़के साथ विवाह कर चली गई, तो उसके परिवार के पुरुषों ने लड़के की बहन से सामूहिक बलात्कार किया। सोचते हैं क्यों? अपने परिवार की लड़की अपनी इज्जत और दूसरे परिवार की लड़की भी उनकी इज्जत। हमारी चली गई, तो उनकी भी लेंगे। यही न? दंगों के समय दूसरे समुदाय की स्त्रियों के साथ क्या होता है? देश-विभाजन के समय क्या हुआ? जब युद्ध लड़े जाते हैं, तब क्या होता है? किसी से भी छिपा नहीं, किसी को ज्यादा खोलकर कहने की जरूरत भी नहीं सब समझ जाते है। यह सब सिर्फ इसलिए कि स्त्री स्वायत्त नहीं परिवार, समुदाय और देश की संपत्ति है। बहुत पहले मनाली में एक दुकानदार ने मुझे यही समझाया था, ‘हमारे धर्म में स्त्री की हिफाजत इसलिए की जाती है, क्योंकि वह सबसे कीमती होती है। आप किसी हीरे को सड़क पर रख देंगे, तो हजारों टूट पड़ेंगे, जबकि पत्थर यूं ही पड़े रहते हैं। आदमी पत्थर है और औरत हीरा।’ मैं उसे समझा ही नहीं पाई कि औरत हीरा नहीं औरत इंसान होना चाहती है, जिसकी न कोई हिफाजत करे और जिस पर कोई टूट भी न पड़े। पर नहीं साहब फितरत आदमी की खराब है। औरत की हिफाजत सारी संस्थाएं मिलकर करती हैं, क्योंकि ‘इज्जत तो औरत की ही खराब होती है न।

सामाजिक नियमों का सबसे बड़ा निष्कर्ष है – इज्जत/ सम्मान। औरत की इज्जत उसकी देह में और आदमी की इज्जत उसके परिवार/समुदाय की औरतों में। इसी मानसिकता के तहत हाल में एक खास मजहब की औरतों की तस्वीरों की नीलामी दूसरे धर्म का ध्वज उठाए आदमियों ने की। अगर उनका वश चलता तो तस्वीरों की जगह असल औरतों से वैसा ही सलूक करते, लेकिन जो नहीं हो पा रहा उसकी जगह जो कर पा रहे उसी से जुगुप्सा-जन्य आनंद ले लिया। सोचिए समाज के बर्बर मध्ययुग से आधुनिक युग में आने पर भी औरतों को क्या मिला? बराबरी, बराबर का इंसान, नागरिक, मनुष्य, एक स्वत्व-सम्पन्न अस्तित्व- क्या यह इतना मुश्किल है? संभवत:! इसीलिए तो आज भी एक धार्मिक पहचान के नशे में चूर पुरुष दूसरे धार्मिक समुदाय के पुरुषों को नीचा दिखाने के लिए और किसी माध्यम की जगह औरत की देह (तस्वीर) का इस्तेमाल कर रहा है। वैसे भी युगों से औरत, उसके वजूद और उसकी देह को पितृसत्ता ने अपना उपनिवेश बना रखा है। इतनी आसानी से कहां स्वत्व मिलेगा, पर स्त्री को चाहिए वही।

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