महिलाओं को सिर्फ शरीर के रूप में ही देखा जाता है। इसी वजह से महिलाओं के खिलाफ हिंसा और अपराध की घटनाओं में लगातार वृद्धि हो रही है। उसके पास ज्ञान, अर्थतंत्र, शक्ति, विचार और राजनीतिक समझ भी है, लेकिन इसकी हमेशा से उपेक्षा की जाती रही है। समाज में अनगिनत ऐसे उदाहरण हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि महिलाओं की इन सभी क्षेत्रों में सक्रिय सहभागिता रही है। मुश्किल यह है कि समाज उसके शरीर को केंद्र में रखकर इन सभी प्रक्रियाओं में उसकी सहभागिता और योगदान को हाशिए पर धकेल देता है। ऐसा नहीं है कि प्राचीनकाल से अब तक महिलाओं की स्थिति में कोई सकारात्मक बदलाव नहीं आया हो, परन्तु यह भी सच है कि महिलाओं के प्रति पुरुष समाज की मानसिकता में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया।
एक समतामूलक और लैंगिक विभेद मुक्त समाज के निर्माण के लिए आवश्यक है कि किसी एक जेंडर का किसी दूसरे जेंडर पर प्रभुत्व स्थापित न हो। दोनों में कोई एक दूसरे से श्रेष्ठ या अधीनस्थ नहीं है, अपितु समान है। महिलाओं के प्रति समाज की सोच को बदलना होगा। महिलाओं की प्रतिभा को कम करके आंकना, उन्हें परिवार तक सीमित रखने का तर्क देना, उन्हें केवल शरीर के रूप में स्वीकारना, यह मानना कि उनमें निर्णय लेने की क्षमता का अभाव होता है, कुछ ऐसे पक्ष हैं जो उन्हें भय मुक्त होकर अपनी अस्मिता को स्थापित करने से रोकते हैं। इसलिए उसे एक सुरक्षित समाज बनाने के लिए इन सब बाधाओं को समाप्त कर सशक्तीकरण का रास्ता तलाशना है।