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आधी आबादी : नाउम्मीदी के दौर में उम्मीद बनाए रखने के प्रयास

– सामूहिक अवसाद की खाई में सब न समा जाएं, इसके लिए जरूरी है उम्मीद। ऐसे माहौल में किसी भरोसे का होना जरूरी है।

नई दिल्लीMay 31, 2021 / 10:07 am

विकास गुप्ता

आधी आबादी : नाउम्मीदी के दौर में उम्मीद बनाए रखने के प्रयास

सुदीप्ति

प्राय: हमारी चिंता रहती है कि हमारा समाज जेंडर सेंसिटिव कैसे बने, लेकिन अभी यह देखना हमें नए हौसले से भर दे रहा है कि स्त्रियां समाज को मुश्किल समय में कैसे संभालती और सहेजती हैं। वे कैसे नाउम्मीदी में भी उम्मीद की आंच बचाए रखती हैं? इन दिनों ज्यादातर यही हुआ कि ‘सकारात्मकता’ शब्द सुनकर ही गुस्सा आता रहा, क्योंकि इस शब्द के भाव को सैनिटाइज करके इसका राजनीतिक इस्तेमाल किया गया। संवेदनहीन सकारात्मकता का माहौल बनाने की जबरन कोशिश की गई। सकारात्मकता की चाह गलत नहीं है। यह तो जीने की चाह है। चारों तरफ फैले नैराश्य के बीच एक उम्मीद की एक किरण का होना है। सवाल यह है कि जब मौत की बेसुरी घंटी बज रही हो, तो सकारात्मकता की शहनाई बजाने का क्या तुक है? फिर भी जीने के लिए किसी ढांढस, किसी भरोसे का होना तो जरूरी है। सामूहिक अवसाद की खाई में सब न समा जाएं, इसके लिए जरूरी है उम्मीद।

इस गहन अंधेरे और निराश समय में स्त्रियों ने बहुत ही ठहराव के साथ, सधे और शांत ढंग से जीवन में आस्था बनाए रखने, संबन्धों की पारस्परिकता को उजागर करने और सामाजिक उत्साह को बुझने न देने के युक्ति संगत प्रयास किए। सकारात्मकता को देखना हो तो किसी बच्चे की प्यारी मुस्कान, तुतलाती आवाज और उठकर चलने की कोशिश में धम्म से गिर जाने में देखिए। बच्चों, फूलों की तस्वीरों और वीडियो को जब स्त्रियां लेकर आईं, तो उसमें कोई घोषणा नहीं थी सकारात्मकता की। वह मूल मुद्दे से ध्यान भटकाने वाला कोई प्रोपेगेंडा नहीं था, वह जीवन का एक समानांतर मोर्चा था। तीस सेकंड की रील से हम मुस्कान से लिप्त हो उठते थे।

पिछले साल के लॉकडाउन में खान-पान की तस्वीरें बहुत आई थीं, पर आप ध्यान देंगे तो इस बार खान-पान का प्रदर्शन या रसोई की उत्सवधर्मिता नहीं थी, पर आपस में स्वाद और संबंध की इस ऊष्मा को बांटा गया। सबने ठंडे पड़े रिश्तों की भी परवाह की और उसी क्रम में सोशल मीडिया पर पुरानी तस्वीरों की खुदाई का एक दौर आया। मानो अतीत के बहाने वे सबको यह भरोसा दे रही हों कि भविष्य भी जीने लायक होगा। आप जीवन के मधुर प्रसंगों को, अपने अच्छे दिनों को मुश्किल समय में खुद याद करना भूल सकते हैं, यह निराशा की एक परिणति है। यह ‘ब्रेन फॉग’ के कारण सम्भव है। ऐसे में कोई आपको आपकी मधुर स्मृतियों से किसी युक्ति से जोड़ दे, यह कितनी अच्छी बात है। ऐसे प्रयास किसी को बचकाने लग सकते हैं, पर ऐसा है नहीं। यह वैसी सकारात्मकता भी नहीं है, जो किसी शोक-डूबी आत्मा को चुभे। किसी रोई-धोई आंखों में किरचों की तरह पीड़ा दे। यह वैसी सकारात्मकता है, जिससे स्त्रियां इस बेमुरव्वत दुनिया को टुकड़ों में ही सही जीने लायक बनाती हैं।

(लेखक समाज, सिनेमा, संस्कृति जीवन-शैली, शिक्षा आदि पर मुखर लेखन करती हैं)

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